जन्म होना , प्रजनन करना , जीवन यापन करना और फिर शरीर का त्याग कर देना। क्या यही जीवन है ? इतना ही जीवन है ? ऐसे ही जीवन जीने के लिए ईश्वर ने हम लोगों को , हम सभी को यह मानव जीवन दिया है ? ऐसा जीवन तो पशु-पक्षी अन्य जीव - जन्तु भी जी लेते हैं । वस्तुतः सत्य तो यह है कि हमने कभी अपने इस अनमोल जीवन का अर्थ समझा ही नहीं या फिर समझ ही नही पाए और न ही कभी जीवन को अपने पूर्ण अर्थों में जी ही पाए। ईश्वर ने हमे मानव शरीर दिया, बौद्धिक क्षमता दी, पर हमने इस वरदान का दुरुपयोग किया और जीवन यापन करने की उधेड़ बुन में जीवन का वास्तविक अर्थ ही भूल जाते है। शरीर त्याग के पश्चात भी अपने गन्तव्य तक नही पहुच पाते।
हमारा वास्तविक घर तो ईश्वर का घर ही है। हम सभी जीव , इस सृष्टि में जितने भी जीव है , सभी का वास्तविक निवास तो ईश्वर का घर ही है। जैसे एक बच्चे के लिए पिता का घर ही उसका घर होता है, वैसे ही ईश्वर की संतान होने के नाते ईश्वर का घर ही हमारा शाश्वत घर है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन विमल सहज सुख राशी ||
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जीव ईश्वर का अंश है। वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥ वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया।
श्री रामचरित मानस
ईश्वर का अंश होने के नाते ईश्वर का घर ही तो हमारा घर हुआ न। पर हम प्रायः कभी अपने घर पहुच ही नही पाते और शरीर त्याग के पश्चात वापस यही आ जाते है।
इसे इस प्रकार भी समझ सकते है । जैसे किसी विद्यालय में कक्षा की छुट्टी के पश्चात हम घर आते है, वैसे ही शरीर त्याग के बाद हमे घर पहुचना चाहिए था जहाँ ईश्वर हमारी प्रतीक्षा कर रहे होते है। पर हममे से ज्यादातर के साथ ऐसा होता नही। और हम घर न पहुच कर यत्र तत्र भटक जाते है।
ऐसा क्यों होता है , इस प्रश्न का उत्तर हमे एक कक्षा के माध्यम से बड़ी आसानी से समझ सकते है। जैसे पूरे वर्ष पढ़ाई के पश्चात वर्ष के अंत में परीक्षा होती है। परीक्षा में कुछ विद्यार्थी उत्तीर्ण होते हैं , कुछ विद्यार्थी फेल हो जाते हैं, और जो फेल हो जाते हैं वह वापस उसी कक्षा में पुनः आ जाते हैं और फिर अगले पूरे वर्ष फिर उसी कक्षा में पुनः पढ़ाई करते है। ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी होता है। जीवन जीते है और इस शरीर की समाप्ति के पश्चात् जब अपने शाश्वत घर की तरफ यात्रा प्रारंभ करते हैं तो बीच रास्ते से वापस लौट आते है। ये देख कर के ईश्वर को भी बहुत दुख होता है और वो यही सोचते है कि आज फिर हम वापस अपने घर नही पहुंचे और पुनः इसी चक्र में उलझ के रह गए , न तो अपने बौद्धिक क्षमता का उपयोग कर पाए और न ही ईश्वर की इस अमूल्य भेंट का सम्मान ही कर पाए।
ऐसा क्यों होता है , इसके पीछे वैसे तो कई कारण है जो हमारे ही विवेक के दुरुपयोग की वजह से हुआ , जैसे करतित्वभिमान, अहम, मोह, संग्रह की इच्छा, जुड़ाव, कामना इत्यादि। ये सभी कारन वैसे तो समान रूप से ही कारक है पर कामना भी उन महत्वपूर्ण कारणों में से एक है। हमे हमारे इस जीवन मे एक ईमानदार प्रयास करना चाहिए कामना के परित्याग का ताकि हम इस यात्रा के उपरांत अपने वास्तविक घर पहुच सके। परम पिता का सानिध्य प्राप्त कर सकें जो अत्यंत उत्कंठा से हमारी प्रतीक्षा करते है, जहाँ सिर्फ आनंद ही आनंद है।
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