आम तौर पे हम सबने कभी न कभी अपने जीवन काल में तिलक लगाया होगा या फिर देखा तो अवश्य ही होगा। पर क्या आप जानते है की तिलक लगाने की परंपरा कब से और कैसे शुरू हुई।
तिलक लगाने की परंपरा वास्तव में कब से और कैसे शुरू हुई इसका प्रामाणिक साक्ष्य तो उपलब्ध नहीं है और यह बता पाना भी कठिन है क्युकी सनातन संस्कृति का आदि या प्रारम्भ ज्ञात नहीं, सनातन का अर्थ ही होता है जो शाश्वत है अर्थात सदा से है। तिलक लगाने की परंपरा भारत में प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। किसी भी आयोजन में आने वाले व्यक्ति का स्वागत-सत्कार तिलक लगाकर ही करते हैं। ये हमारी संस्कृति का अंग है। सनातन विवाहित स्त्री अपने मस्तक पर कुंकुम का तिलक धारण करती है। शादी-विवाह या किसी मांगलिक कार्य में बहन-बेटी या महिलाएं एक दूसरे का स्वागत हल्दी कुंकुम लगाकर करती है।
वास्तव में तिलक लगाना सनातन पूजा और भक्ति का एक प्रमुख अंग है। भारतीय संस्कृति में पूजा-अर्चना, संस्कार विधि, मंगल कार्य, यात्रा गमन, शुभ कार्यों के प्रारंभ में माथे पर तिलक लगाकर उसे अक्षत से विभूषित किया जाता है।
तिलक लगाने का स्थान : शास्त्रों में हमारे शरीर में तिलक लगाने के कुल 12 स्थान बताये गए हैं। सिर, ललाट, कंठ, हृदय, दोनों बाहुं, बाहुमूल, नाभि, पीठ, दोनों बगल में, इस प्रकार कुल बारह स्थानों पर तिलक करने का विधान है। मस्तक पर तिलक जहां लगाया जाता है वहां आत्मा अर्थात हम स्वयं स्थित होते हैं। तिलक मस्तक पर दोनों भौंहों के बीच नासिका के ऊपर प्रारंभिक स्थल पर लगाए जाते हैं जो हमारे चिंतन-मनन का भी स्थान है। यह स्थान चेतन-अवचेतन अवस्था में भी जागृत एवं सक्रिय रहता है, इसे आज्ञा-चक्र भी कहते हैं। इन दोनों के संगम बिंदु पर स्थित चक्र को निर्मल, विवेकशील, ऊर्जावान, जागृत रखने के साथ ही तनावमुक्त रहने हेतु ही तिलक लगाया जाता है। इस बिंदु पर यदि सौभाग्यसूचक द्रव्य जैसे चंदन, केशर, कुमकुम आदि का तिलक लगायें इससे सात्विक एवं तेजपूर्ण होकर आत्मविश्वास में अभूतपूर्ण वृद्धि होती है, मन में निर्मलता आती है , शांति एवं संयम में वृद्धि होती है।
तिलक लगाने का वैज्ञानिक महत्व : तिलक लगाने के पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी परिभासित है। वैज्ञानिक प्रमाण से भी यह सिद्ध हुआ है की ललाट पर तिलक धारण करने से मस्तिष्क को शांति और शीतलता मिलती है तथा बीटाएंडोरफिन और सेराटोनिन नामक रसायनों का स्राव संतुलित मात्रा में होता है। इन रसायनों की कमी से उदासीनता और निराशा के भाव पनपने लगते हैं अत: तिलक उदासीनता और निराशा से मुक्ति प्रदान करने में सहायक है। भारतीय संस्कृति में विभिन्न द्रव्यों से बने तिलक की उपयोगिता और महत्व अलग-अलग हैं।
किस अंगुलि से लगाएं तिलक तो क्या होगा : अनामिका अंगुली से तिलक करने से मन और मस्तिष्क को शांति मिलती है, मध्यमा से आयु बढ़ाती है, अंगूठे से तिलक करना पुष्टिदायक कहा गया है और तर्जनी से तिलक करने पर मोक्ष मिलता है। विष्णु संहिता के अनुसार देव कार्य में अनामिका, पितृ कार्य में मध्यमा, ऋषि कार्य में कनिष्ठिका तथा तांत्रिक कार्यों में प्रथमा अंगुली का प्रयोग होता है।
मान्यता है कि विष्णु आदि देवताओं की पूजा में पीत चंदन, गणेश पूजा में हरिद्रा चंदन, पितृ कार्यों में रक्त चंदन, शिव पूजा में भस्म, ऋषि पूजा में श्वेत चंदन, मानव पूजा में केसर और चंदन, लक्ष्मी पूजा में केसर एवं तांत्रिक कार्यों में सिंदूर का प्रयोग तिलक के लिए करना चाहिए।
तिलक कई प्रकार के होते हैं : मृतिका, भस्म, चंदन, रोली, केसर, सिंदूर, कुंकुम, गोपी आदि। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं। तिलक एक नहीं अपितु कई तरह से लगाया जाता है । हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं।
*शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।
*शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
*वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं- लालश्री तिलक-इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।
*विष्णुस्वामी तिलक यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भौंहों के बीच तक आता है।
*रामानंद तिलक विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।
*श्यामश्री तिलक इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।
*अन्य तिलक गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। कई साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।
चन्दन का तिलक : चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं। चंदन का तिलक ताजगी लाता है और ज्ञान तंतुओं की क्रियाशीलता बढ़ाता है। चन्दन के प्रकार : हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।
कुमकुम का तिलक : कुमकुम का तिलक तेजस्विता प्रदान करता है।
मिट्टी का तिलक : विशुद्ध मिट्टी के तिलक से बुद्धि-वृद्धि और पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
केसर का तिलक : केसर का तिलक लगाने से सात्विक गुणों और सदाचार की भावना बढ़ती है। इससे बृहस्पति ग्रह का बल भी बढ़ जाता है और भाग्यवृद्धि होती है।
हल्दी का तिलक : हल्दी से युक्त तिलक लगाने से त्वचा शुद्ध होती है।
दही का तिलक : दही का तिलक लगाने से चंद्र बल बढ़ता है और मन-मस्तिष्क में शीतलता प्रदान होती है।
इत्र का तिलक : इत्र कई प्रकार के होते हैं। अलग अलग इत्र के अलग अलग फायदे होते हैं। इत्र का तिलक लगाने से शुक्र बल बढ़ता हैं और व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में शांति और प्रसन्नता रहती है।
तिलकों का मिश्रण : अष्टगन्ध में आठ पदार्थ होते हैं- कुंकुम, अगर, कस्तुरी, चन्द्रभाग, त्रिपुरा, गोरोचन, तमाल, जल आदि। पंचगंध में गोरोचन, चंदन, केसर, कस्तूरी और देशी कपूर मिलाया जाता है। गंधत्रय में सिंदूर, हल्दी और कुमकुम मिलाया जाता है। यक्षकर्दम में अगर, केसर, कपूर, कस्तूरी, चंदन, गोरोचन, हिंगुल, रतांजनी, अम्बर, स्वर्णपत्र, मिर्च और कंकोल सम्मिलित होते हैं।
गोरोचन : गोरोचन आज के जमाने में एक दुर्लभ वस्तु हो गई है। गोरोचन गाय के शरीर से प्राप्त होता है। कुछ विद्वान का मत है कि यह गाय के मस्तक में पाया जाता है, किंतु वस्तुतः इसका नाम 'गोपित्त' है, यानी कि गाय का पित्त। हल्की लालिमायुक्त पीले रंग का यह एक अति सुगंधित पदार्थ है, जो मोम की तरह जमा हुआ सा होता है। अनेक औषधियों में इसका प्रयोग होता है। यंत्र लेखन, तंत्र साधना तथा सामान्य पूजा में भी अष्टगंध-चंदन निर्माण में गोरोचन की अहम भूमिका है। गोरोचन का नियमित तिलक लगाने से समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं के लिए गारोचन बहुत लाभदायी है।
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