विशुद्ध वर्ण व्यवस्था का तात्पर्य तथा उद्देश्य है व्यक्ति की प्रवृत्ति और गुणों का आकलन करके व्यक्ति का सम्यक विकास करना। वस्तुतः वर्ण व्यवस्था इन्ही दो तथ्यों को आधार मानकर बनाई गई थी। वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था से सर्वथा भिन्न है। जाति व्यवस्था जिसे वर्ण व्यवस्था का एक अंग माना जा सकता है वस्तुतः अलग अलग कार्याे में संलग्न व्यक्तियों का समूह है।
वर्ण व्यवस्था को सामाजिक जीवन शैली का आधार माना जा सकता है जिसमे प्रत्येक व्यक्ति अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करता था। जो इस सामाजिक व्यवस्था का घोर उलंघन करते थे, उन्हें दण्ड न देकर सामाजिक बहिष्कार करने की प्रथा थी। ऐसे ही समूह जिनका दण्डस्वरूप बहिष्कार किया गया था , वे अछूत कहलाये।
प्राचीन काल में ये व्यवस्था सुचारु रूप से चली आ रही थी जिसमे लम्बे समय के बाद रूढ़िवाद ने जगह बनाना प्रारम्भ किया। संभवतः विदेशी लूटेरों के शाशन काल में। वर्ण व्यवस्था में रूढ़िवाद के प्रवेश का परिणाम हुआ कि वर्ण व्यवस्था में योग्यता तथा प्रवृत्ति के आकलन की अपेक्षा जन्म को आधार बना दिया गया।
इस विकृति का मूल कारण उच्च वर्ण वालों की धूर्तता रही अथवा स्वाभाविक रुप से शिथिलता , यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं है। पर इतना स्पष्ट है कि इस विकृति ने भारत को कालांतर में गुलामी की जंजीरों में जकड़ लिया।
इस रूढ़िवादी विकृति के कारण जो लोग सामाजिक बहिष्कार के आधार पर अछूत कहे गये उनकी आने वाली पीढ़िया भी अछूत रह गई और उन्हें दूसरे वर्ण में जाने का कोई अवसर नहीं दिया गया। इस घोर विकृति के परिणामस्वरुप भारत का समाज छिन्न - भिन्न होने लगा। पहले जातियां फिर उपजातियां और फिर जाने किस किस प्रकार से भेदभाव ने अपनी जड़े गहरी करनी शुरू कर दीं।
ये शाश्वत सत्य है कि जब समाज का नेतृत्व अयोग्य हाथों में हो तो देश गुलामी की ओर अग्रसर होता है। भारत में भी यही हुआ क्योंकि अयोग्य लोग अपने को ब्राह्मण या धर्मगुरु घोषित करके पूज्य बनने लगे तथा अच्छे योग्य लोग कभी शूद्र से आगे बढ ही नहीं पाए। राजा के अयोग्य पुत्र स्वाभाविक रुप से राजा बनने लगे, चिंतन भी बंद हो गया क्युकी चिंतन करने का दायित्व भी अयोग्य धर्मगुरुओं के हाथों सिमित होकर रह गया।
इसी वैचारिक गुलामी के कालखण्ड में स्वामी दयानन्द सरीखे कुछ महापुरुषों ने इस विकृति को समझा और जन्म आधारित रूढ़िवादिता को दूर करने का प्रयास आरम्भ किया जिसके कालांतर में काफी सकारात्मक परिणाम निकले।
ब्रिटिश शाशन में महात्मा गांधी ने भी स्वामी दयानन्द के प्रयास को आगे बढ़ाया। एक समय ऐसा लगने लगा था कि शीघ्र ही वर्ण व्यवस्था में आयी इस विकृति का भारत से समापन हो जाएगा परन्तु कुछ सत्ता लोलुप नेताओं को ये प्रयास रास नहीं आया। उन नेताओं को ये इसलिए पसंद नहीं आया क्युकि ऐसा सुधार समाज को विकसित करता और अयोग्य नेताओं का वर्चस्व समाप्त हो जाता।
सत्तासीन लोगों व राजनेताओं ने संयुक्त रुप से वर्ण व्यवस्था की सामाजिक विकृतियों को दूर करने की अपेक्षा उनका राजनैतिक लाभ उठाने का ही प्रयास किया। अपने राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए भारतीय समाज को चार भागों में हमेशा के लिए विभक्त भी कर दिया गया।
ऐसे ही कुत्सित प्रयासों को सभ्रांत वर्ग का भी भरपूर समर्थन मिला जो अयोग्य होते हुए भी पूज्य बनकर समाज मेें रहना चाहते थे।
गायत्राी परिवार के श्री राम शर्मा जी ने भी इस विकृति को सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयत्न किया किन्तु उनके जाने के बाद वे प्रयत्न भी वही तक सिमित होकर रह गए।
वर्तमान में स्थिति यह है कि भारत न तो इस वर्ण व्यवस्था में सुधार करने की स्थिति में है, न समाप्त करने की स्थिति में। आज आवश्यकता है एक जन जागरण की जिससे जन सामान्य इस षड्यंत्र को समझ सके और उससे बाहर आने का मार्ग प्रशस्त हो सके।
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