भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था से पूरी दुनिया परिचित है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था पुरे विश्व में श्रेष्ठ थी। यह व्यवस्था सिर्फ नाम की न होकर पूर्णतः वैज्ञानिक और विकसित थी। प्राचीन काल में जब विश्व को जीवन शैली का ज्ञान भी नहीं था , तब भारत में न केवल वैज्ञानिक व तकनीकी विकास हुआ बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी अभूतपूर्व उन्नति हुई।
सामाजिक व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्व है। वर्ण व्यवस्था को समझने के लिए वर्तमान की व्यवस्था का उदहारण लिया जा सकता है , जिससे वर्ण व्यवस्था के उद्देश्य को सरलता से समझा जा सकता है।
वर्तमान परिदृश्य में मनोवैज्ञानिक भी ये मानते हैं कि यदि बच्चे की रूचि के अनुसार बालपन से ही उसकी रूचि के अनुसार बालक को प्रशिक्षित किया जाये तो वह बड़ा होकर अपने जीवन में अधिक सफल हो सकता है।
वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य भी यही है की बालक की प्रवृति तथा उसकी रूचि के आधार पर उसको समुचित प्रशिक्षण प्रदान करना ताकि आने वाले समय में वो श्रेष्ठता को प्राप्त हो सके। शाश्त्रो में ऐसा वर्णित है जिसे आधुनिक विज्ञान भी कही न कही स्वीकार करता है कि किसी भी बालक की प्रवृत्ति तीन परिस्थितियों के समावेश का मिश्रण होता है -
पूर्व जन्म के संस्कार, पारिवारिक वातावरण, सामाजिक परिवेश।
पूर्व जन्म के संस्कार से अर्थ है पैतृक संस्कार अथवा मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार या फिर दोनों ही। इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता पर विज्ञान इतना जरूर स्वीकार करता है कि पूर्व जन्म के संस्कार मनुष्य की प्रवृत्ति को प्रभावित करने में सक्षम है।
बच्चे के जन्म के बाद बचपन के संस्कारों में परिवार का प्रभाव पड़ता है और ये भी माना जाता है कि परिवार ही बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है। 6 से लेकर 12 वर्ष की आयु के बाद बच्चे के मन पर सामाजिक प्रभाव भी पड़ना शुरु हो जाता है।
यही कारण है कि प्राचीन काल में बच्चे की प्रवृत्ति का आकलन करते समय 6 से लेकर 12 वर्ष तक की अवस्था को ही मानक माना जाता था। इस आयु में बच्चे में जो प्रवृत्ति अधिक प्रभावी दिखती थी, उसे उसी दिशा में प्रशिक्षित किया जाता था और प्रशिक्षण के पश्चात बालक ब्राह्मण , क्षत्रिय, अथवा वैश्य के नाम से जाना जाता था।
जिस बच्चे में चिंतन का प्रभाव अधिक होता था, जो स्वाभाव से निडर होता था , परन्तु स्वाभाव से कोमल होता था और बल प्रयोग को अंतिम विकल्प समझता था , उसे ब्राह्मण प्रवृत्ति माना जाता था। ऐसा बालक शांत, गंभीर, ज्ञान और त्याग से भरपूर माना जाता था।
इसके ठीक विपरीत ऐसा बालक जिसमे निडरता के साथ कठोरता भी हो , जो बल प्रयोग में सरल हो , दूसरों पर बल प्रयोग की इक्षा रखने वाला हो उसे क्षत्रिय प्रवृति माना जाता था।
उपरोक्त दोनों के विपरीत जिस बालक में साहस का अभाव हो , तथा दूसरों पर अपनी बात न थोपता हो उसे वैश्य प्रवृति माना गया है।
जो बालक श्रम प्रधान होता था, न कि बुद्धि प्रधान , उसे शूद्र प्रवृति माना गया। इस वर्ण व्यवस्था की सबसे अच्छी बात थी की यह व्यवस्था समाज में उत्कृष्ट व्यक्तित्व को प्रदान करने में सक्षम थी। वर्तमान में भी मनोवैज्ञानिक बच्चे के समुचित व्यक्तित्व विकास के लिए बच्चे की रूचि और उसकी प्रवृति को समझने पर काफी बल देते हैं।
इस वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण प्रवृत्ति को सर्वाेच्च स्थान प्राप्त था। आश्रम व्यवस्था में भी वर्ण व्यवस्था का समावेश था अर्थात् ब्राह्मण को अपने अंत समय में सन्यास धारण करना चाहिए जबकि क्षत्रिय को वानप्रस्थ। वैश्य और शूद्र को सन्यास अथवा वानप्रस्थ से मुक्ति दी गई थी , और वे आजीवन गृहस्थ आश्रम में ही रहकर अंत समय में मोक्ष प्राप्त कर सकते थे।
शाश्त्रो में ऐसे भी कई प्रमाण मिलते है जो इस तथ्य की पुष्टि करते है कि प्राचीन काल में वंश / नस्ल सुधार को भी बहुत महत्व दिया जाता था। जिसका अर्थ था कि निम्न वर्ण की स्त्री का उच्च वर्ण के पुरुष के साथ विवाह और संतान उत्पत्ति।
प्राचीन समय में ब्राह्मण को सदैव ही आदर की दृष्टि से देखा गया है और उनके साथ किसी भी प्रकार का बल प्रयोग अनुचित माना जाता था। ब्राह्मण के लिए सम्मान के अतिरिक्त किसी भी राजनैतिक पद अथवा धन लोलुपता प्रतिबंधित माना गया है।
हर व्यक्ति अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करता था जिससे वो अपने क्षेत्र में श्रेष्ठता को प्राप्त होता था।
विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित करता है कि यदि हम दूसरे की नक़ल न करके अपनी स्वाभाविक प्रवृति के अनुसार कार्य करें तो निःसंदेह अपने क्षेत्र में उत्कृष्त हो सकते हैं। ऐसी रचनात्मक और वैज्ञानिक वर्ण व्यवस्था भारत के अतिरिक्त विश्व में अन्यत्र लगभग न के बराबर ही थी।
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