सामाजिक व्यवस्था में बदलाव कैसे हो

Author : Neeraj Avinash   Updated: November 25, 2020   3 Minutes Read   19,610

भारत की सामाजिक व्यवस्था विश्व में सर्वोत्तम थी , इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। भारत की वर्ण व्यवस्था जो सामाजिक व्यवस्था की सशक्त इकाई थी के सर्वोत्तम होने का कारण था उसकी विविधता , चार गुणों का समावेश जो अन्य किसी सामाजिक व्यवस्था में नहीं मिलती।

चाहे प्राचीन इतिहास को देखें या मध्य कालीन इतिहास को , भारत जैसी विविध तथा समृद्ध सामाजिक व्यवस्था इतिहास के पन्नों में कही भी नहीं मिलती।

भारत की व्यवस्था ही एकमात्र ऐसी सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें प्रवृत्ति और योग्यता की प्रधानता थी। समाज के सम्यक विकास के लिए योग्यता तथा क्षमता के अनुसार कार्य विभाजन का प्रावधान था। ऐसा सुन्दर उदाहरण अन्यत्र कहीं देखने या सुनने में भी नहीं मिलता।

इस्लामिक व्यवस्था में क्षत्रिय गुण प्रधान दिखता है, जबकि पाश्चात्य संस्कृति में वैश्य गुण की प्राधनता मिलती है। इन दोनों के विपरीत साम्यवाद पूरी तरह शूद्र गुण की प्राधनता लिए है।

इन तीनों सामाजिक व्यवस्था से अलग भारतीय संस्कृति में - ज्ञान , क्षत्रिय , वैश्य तथा श्रम इन चारों गुणों का समावेश मिलता है जिसमें ज्ञान तथा त्याग को सर्वाेच्च स्थान प्राप्त था।

इतनी सशक्त और सुन्दर व्यवस्था होने के बाद भी ये हमारा दुर्भाग्य ही है जो भारत के स्वार्थी तत्व व तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग चार मूल गुणों से संपन्न भारत की इस सुन्दर वर्ण व्यवस्था को कोसने तक ही सिमित हो चुके हैं। होना तो चाहिए था कि समय के साथ आयी विकृति को सुधारने की दिशा में ठोस और कारगर कदम उठाया जाता।

परन्तु राजनितिक स्वार्थ की वजह से इस दिशा में कोई सशक्त प्रयास नहीं किया गया। समय के साथ बदलाव जरुरी है और वर्ण व्यवस्था में भी सुधार किया जाना चाहिए , पर ये सहज नहीं जान पड़ता। भारत को विश्व गुरु की राह पर आगे ले जाना है तो वर्तमान में चार गुण समपन्न वर्ण व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की नितांत आवश्यकता है।

व्यवस्था में बदलाव कैसे हो

अब प्रश्न उठता है कि आखिर ये बदलाव होगा कैसे। इसका एक बहुत ही सहज उपाय ये हो सकता है कि जिन तत्वों के आधार पर वर्ण व्यवस्था को दूषित किया गया , उन तत्वों से ही किनारा कर लिया जाये।

वर्तमान में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जैसे सम्बोधन दूषित हो चुके हैं , क्यू न इन सम्बोधन से ही किनारा कर लिया जाये। इनके स्थान पर किसी अन्य सम्बोधन का प्रयोग किया जाये।

एक अन्य सरल विकल्प ये भी हो सकता है कि 6 से 12 वर्ष तक की आयु के बालको के लिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित की जाये जिसमे बालक की रूचि व प्रवृति के आधार पर उसका उसी दिशा में विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था हो।

वर्तमान में भी प्रत्येक विशिष्ट व्यवसाय के लिए विशेष योग्यता अनिवार्य है। जैसे प्रशासनिक कार्यों के लिए IAS , IPS जैसी परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं।

यदि बचपन से ही बालक की प्रवृत्ति के आधार पर विद्वान, राजनीतिज्ञ, व्यवसायी, श्रमिक सरीखा विभाजन कर दिया जाये और उन्हें उसी दिशा में विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाये तो समाज में अवश्य की आमूलचूल बदलाव संभव हो पाएगा।

एक ऐसी व्यवस्था भी की जा सकती है जिसमें व्यवसाय में भी बालक के प्रशिक्षण को आधार बनाया जाये। जैसे विधायिका में विद्वान, कार्यपालिका में राजनीतिज्ञ , व्यवसाय में वैश्य तथा श्रमिक कार्याे में श्रमिक श्रेणी में प्रशिक्षण को मानदण्ड बनाया जाये और अन्य श्रेणी में प्रशिक्षण प्राप्त लोगों को अयोग्य माना जाये।

ये ठीक वैसे ही होगा जैसे वर्तमान में डॉक्टरी की पढाई के लिए जीव विज्ञान अनिवार्य होता है और दूसरे विषय में अध्ययन किये लोगों को डॉक्टरी की पढाई में प्रवेश ही नहीं मिलता।

यदि ऐसा कुछ बदलाव हो पाता है तो अवश्य ही यह एक सभ्य और विकसित समाज निर्माण की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध होगा।


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