भारत में योग परम्परा और शास्त्रों का विस्तृत इतिहास रहा है, वैसे आज इसका बहुत सारा इतिहास समय के साथ नष्ट हो गया है और कुछ को तो पाश्चात्य सभ्यता के विक्षिप्त मानसिक गुलाम लोगो ने जान बुझ कर नष्ट कर दिया । किन्तु जिस तरह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम चंद्र जी महाराज के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान भी जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी यत्र - तत्र देखे जा सकते है।
हजारो साल से भी पहले भगवान शिव ने योग की सिद्धि प्राप्त की थी और उन्होंने हिमालय पर आनंद की स्तिथि में तांडव नृत्य किया था।वस्तुतः भगवान शिव ही योग के जनक है। बाद में 'गुरु पूर्णिमा' के दिन शिव ने 7 ऋषियों का गुरु बनने का निर्णय किया ताकि इस विद्या का प्रचार प्रसार हो सके। उन ऋषियों को योग शाश्त्र की शिक्षा दीक्षा दी इस और तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु के रूप में रूपांतरित कर लिया।
भगवान उमापति के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद में श्री कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पहली बार महर्षि पातंजलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया।
इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से अपनाया और उसका विस्तार किया।
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति।। ( ऋक्संहिता, मंडल-1, सूक्त-18, मंत्र-7)
अर्थात - योग के बिना विद्वान का भी कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। वह योग क्या है ? योग चित्तवृत्तियों का निरोध है, वह कर्तव्य कर्ममात्र में व्याप्त है।
स घा नो योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स न:।। ( ऋग्वेद 1-5-3 )
अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो , उसकी दया से समाधि , विवेक , ख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो , अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करे।
उपनिषद में इस तथ्य के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में इसके लक्षण को इस प्रकार बताया गया है - तां योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय धारणम्
योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ 'योगसूत्र' 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ है।
हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म में योग का अलग-अलग तरीके से वर्गीकरण किया गया है। इन सबका मूल वेद और उपनिषद ही रहा है।
वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। समाज के सर्वांगीण विकास के लिए चार आश्रमों की सुव्यवस्थित व्यवस्था थी। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी। ऋग्वेद को 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच लिखा गया माना जाता है।
इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ कराकर हजारों वर्षों तक स्मृति के आधार पर संरक्षित रखा जाता था।
भारतीय दर्शन के मान्यता के अनुसार वेदों को अपौरुषेय माना गया है अर्थात वेद परमात्मा की वाणी हैं तथा इन्हें करीब दो अरब वर्ष पुराना माना गया है। इनकी प्राचीनता के बारे में कई अन्य मत भी हैं।
563 से 200 ई.पू. योग के तीन अंग - तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान - का प्रचलन था। इसे 'क्रियायोग' कहा जाता है।
जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था।
योग के 7 रूप होते है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, 8 वां मोक्ष माना गया है।
समय के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर महर्षि पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को ग्रन्थ का रूप देकर योग विद्या को समेट दिया।
योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए हैं।
पातंजलि के बाद योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों तथा आश्रमों का निर्माण होने लगा, जिसमें केवल राजयोग की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी।
आज के इस आधुनिक जगत में भी योग शाश्त्र उतना ही प्रासंगिक है जितना की अपने मूल स्वरुप में था। आज आवश्यकता है की वेदो और शास्त्रों में निहित ज्ञान विज्ञान को जन मानस तक पहुंचाया जाये।
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