महाभारत के शान्तिपर्व में सृष्टा के सन्दर्भ में एक श्लोक है -
यस्याग्निरास्यं ...लोकात्मने नमः।
बृहदारण्यक उपनिषद् का वचन है -
‘एतस्याक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः’।
ये दोनों ही श्लोक ब्रम्ह के सन्दर्भ में आये है जिसमे बताया गया है कि इसी ब्रह्म के शक्ति सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्र अपने-अपने स्थानों में ठहरे हुए हैं।
उस ब्रह्म की शक्तिमत्ता की कितनी प्रशंसा की जायें वो कम ही है जिसने अपनी शक्ति से समस्त ब्रह्माण्ड को धारण कर रखा है। कठोपनिषद् में आलंकारिक ढंग से उसकी शक्तिमत्ता का वर्णन इस प्रकार किया है -
न तत्र….सर्वमिदं विभाति। - कठ. ५/१६
वह ब्रह्म अपनी शक्तिमत्ता से, सामर्थ्य से सबको अपने शासन सूत्र में बांधे हुए है।
इस प्रकार ईश्वर की शक्तिमत्ता से भी भक्त प्रभावित होकर यह आशा रखे कि वह सविता देव अवश्य दुरितों को दूर करेंगे तथा ‘भद्र’ प्राप्त करायेंगे।
कस्मै देवाय-सुखस्वरूप परमात्मा के लिए महर्षि ने ‘कस्मै’ का अर्थ जो सुखस्वरूप किया है, वह शास्त्र सम्मत है। वैसे सामान्य लोगों के विचारानुसार ‘कस्मै’ का अर्थ ‘किसके लिए’ होना चाहिए, फिर ‘सुखस्वरूप’ अर्थ करने का आधार क्या है। वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तो विदित होगा कि ‘कः’ के दो अर्थ है-‘कः’का अर्थ है सुख-‘कः सुखम्’ निरुक्त 10.22 के अनुसार है।
ऐतरेय ब्राह्मणादि के अनुसार - ‘कः वै प्रजापतिः’ कः नाम प्रजापति का है। उक्त के आधार पर महर्षि ने जो ‘कस्मै देवाय’ का अर्थ सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए किया है, वह उचित ही है।
हविशा विधेम - ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
महर्षि ने ‘हविषा’ के दो अर्थ किये हैं, एक ग्रहण करने योग्य और दूसरा प्रदान करने योग्य। प्रथम लेना द्वितीय देना। वैसे ‘हविषा’ का सामान्यतः सामग्री से, वस्तु से अर्थ होता है।
किन्तु महर्षि ने जो उक्त अर्थ किया है-उसका आधार क्या है ? पाणिनि महर्षि के धातुपाठ के अनुसार -‘हु दानाऽदानयोः’धातु से ‘हविषा’ शब्द बनता है। इसके अनुसार ‘हु’ के दो अर्थ हुए-प्रथम-दान, द्वितीय-ग्रहण करना।
उपनिषद् के वचनानुसार -
‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन् महती विनिष्टः’ केन उप. २/१५ इस मानव जीवन को पाकर कुछ जान लिया तो सत्य है, नहीं जान पाये तो महान् विनाश है। यह वचन मानव जीवन की श्रेष्ठता को वर्णित करता है। अतः उसे जानना है, जिसने इस सृष्टि को धारण कर रखा है।
वह विशाल है, वह अग्रज है, वह उत्पादक है, वह स्वामी है तथा शक्तिमान् है, वह सब दृष्टियों से महान् है -
‘तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’
-यजु ३१/१८
उस महान् सामर्थ्यशाली परमेश्वर को जानकर ही व्यक्ति मृत्यु से, दुःख से छूट जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग गति के लिए है नहीं। जीवन के इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही महर्षि ने हविषा का अर्थ योगाभ्यास किया है, क्योंकि मृत्यु से, दुःख से छूटने के लिए योगाभ्यास (उदाहणन ध्यान मार्ग - ध्यान योग का महत्वपूर्ण अंग है जो तन, मन और आत्मा के बीच सम्बन्ध बनाता है) ही ग्रहण करने योग्य उत्तम साधन है।
योगाभ्यास के द्वारा व्यक्ति मोक्ष का पथिक बन सकता है, ‘भद्र’ की प्राप्ति के लिए योगाभ्यास आवश्यक साधन है। अतः महर्षि ने हविषा का अर्थ योगाभ्यास किया है।
अब प्रश्न है योगाभ्यास की सफलता किस साधन से हो सकती है। उसका प्रमुख साधन है, अभ्यास और दूसरा साधन है उपासना। उपासना के द्वारा शरीर से ऊपर उठा जाता है, अन्तर आत्मा में प्रवेश किया जाता है। यह सब ध्यान के अभ्यास से होता है। ध्यान की सफलता श्रद्धाभाव, समर्पण भाव पर अवलम्बित होती है। समर्पण ही तो जीवन है।
समर्पण क्या करें ? भौतिक वस्तुएं फल, धन, रत्न, अन्न तो उस दाता की देन है, वह ईश्वर ही मुझे यह सब कुछ देता है, फिर भला मैं यह सब उसे कैसे समर्पित करूँ ? फिर मैं तो मोक्षमार्ग का पथिक बनना चाहता हूँ। मोक्षमार्ग का साधन है - ‘मन एवं मनुष्याणां कारण बन्ध्मोक्षयोः’
मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण होता है।
मन जब भौतिक वस्तुओं में आसक्ति करता है, प्रेम करता है तो नाना प्रकार के दुःख उठाता है। आज भौतिक वस्तु के प्रति अत्यधिक आसक्ति ने ही तो क्या आश्चर्यजनक दशा कर रखी है।
अतः एक दूसरा मार्ग है मन को ईश्वरार्पण कर देना। मन की वृत्ति है - प्रेम करने की। यह प्रेम ईश्वर के प्रति हो जाये तो ‘भद्र’ की प्राप्ति सरलता से हो सकती है। अतः आवश्यकता है उसकी भक्ति करने की। तो योगाभ्यास ग्रहण करो, प्रेम समर्पित करो।
इस प्रकार हविषा का अर्थ जो योगाभ्यास और प्रेम है। वह सर्वथा उचित ही है।
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