आदियोगी भगवान शिव

Author : Acharya Pranesh   Updated: February 23, 2020   2 Minutes Read   36,130

हजारो साल से भी पहले भगवान शिव ने योग की सिद्धि प्राप्त की थी। इस अद्भुत निर्वाण या कहें कि परमानंद की स्थिति में उन्होंने हिमालय पर आनंद तांडव नृत्य किया था। फिर वे पूरी तरह से शांत होकर बैठ गए। भगवान शिव के इस अद्भुत नृत्य को कई और स्थान के भी कई लोगों ने देखा था । इस नृत्य को देखकर सभी के मन में जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वे आनंदित होकर झूम उठे और अद्भुत नृत्य कर रहे है ।

कई वर्षों से समाधी में रहने के बाद आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ ये सभी के मन ये प्रश्न था और जानने की जिज्ञासा थी ?

लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे देव-दानव गंधर्व-किन्नर ऋषि और मनुष्य उनके पास पहुंचे, लेकिन शिवजी ने उन पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वे इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर परमानंद में लीन थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है।

देव-दानव गंधर्व-किन्नर ऋषि और मनुष्य सब इंतजार करते रहे की भगवान कुछ बोले , इस अद्भुत नृत्य का कुछ रहस्य बताये, लेकिन भगवान शिव को इनकी कोई सुध ही नहीं थी और वो तपस्या में लीन थे । धीरे-धीरे सब लोग पलायन करने लगे क्योकि शिवजी की तपस्या लम्बी होती जा रही थी और वो तपस्या कई साल तक चली।

लेकिन उनमें से 7 महानुभाव ऐसे भी थे , जो उनके इस नृत्य का रहस्य हर हल में जानना चाहते थे जो अंत तक रुके हुए थे। और उन्होंने अपने हठधर्मिता का परिचय दिया और अंत रुके रहे 

लम्बे इंतजार के बाद जब भगवान शिव ने आंखें खोलीं तो उन्होंने शिवजी से उनके इस नृत्य और आनंद का रहस्य पूछा। शिव ने उनकी ओर देखा और फिर कहा, 'यदि आप इसी इंतजार की स्थिति में लाखों साल भी गुजार देंगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पायंगे , क्योंकि जो मैंने जाना है वह क्षणभर में बताया नहीं जा सकता और न ही उसे क्षणभर में पाया जा सकता है।

वह कोई जिज्ञासा या कौतूहल का विषय नहीं है।

ये 7 लोग भी हठी और परिपक्व थे। भगवान शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और वे भी शिव के पास ही सामधि में लीन हो गए । दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए, लेकिन शिवजी थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे।

84 वर्षों की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण हो गए। पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन 7 तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने परिपक्व हो चुके हैं कि ज्ञान अर्जन के लिए पूरी तरह तैयार हैं। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

शिव ने उन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर उनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु में रूपांतरित कर लिया, तभी से इस दिन को 'गुरु पूर्णिमा' कहा जाने लगा।

भगवान शिव ने इन 7 लोगों को शिक्षा और दीक्षा दी और उन्हें भी उसी तरह के आनंद को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।

ये 7 लोग ही आगे चलकर ब्रह्मर्षि कहलाए। इन 7 ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज विश्व के सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी।

शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी पंथों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदिगुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने भी इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।

उक्त सात ऋषि थे - बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज। इसके अलावा 8 वें गौरशिरस मुनि भी थे।

उल्लेखनीय है कि हर काल में अलग-अलग सप्त ऋषि हुए हैं। उनमें भी जो ब्रह्मर्षि होते हैं उनको ही सप्तर्षियों में गिना जाता है।

7 ऋषि योग के 7 अंगों का प्रतीक हैं 8वां अंग मोक्ष है। मोक्ष या समाधि के लिए ही 7 प्रकार के योग किए जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

सप्त ब्रह्मर्षि देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।

कण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावश:।।

अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि। वैदिक काल में ये 7 प्रकार के ऋषिगण होते थे।

सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य है और भगवान शिव ही पहले योगी हैं। मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ आदियोगी भगवन शिव को ही रही है। 

उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए।


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