महान आधुनिक वैज्ञानिक अनेकों शोधों के पश्चात भी किसी एक सिद्धांत पर स्थिर नहीं हो पा रहे और सृष्टि के मूल आधार के विषय में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध करा पाने में सक्षम नहीं हो पाए है। आज भी नित नई नई परिकल्पनाओं को आधार मान लेते है। वस्तुतः आधुनिक विज्ञान किसी भी सिद्धांत पर ज्यादा लम्बे समय तक टिक ही नहीं पाया और अंततः वेद और उपनिषद की शरण में ही आता है।
आज का सबसे ज्यादा प्रामाणिक सिद्धांत ( God Particle ) नामक खोज है पर देखा जाये अभी ये सिद्धांत बाल्यावस्था में है। वेद और उपनिषदों में सृष्टि के सम्बन्ध में विस्तृत ज्ञान उपलब्ध है। यदि एक हिरण्यगर्भ मन्त्र की ही बात की जाये तो इस मन्त्र के माध्यम से सनातन ऋषि मुनियों ने अतुल्य जानकारी वेदो में उपलब्ध कराई हुई है।
हिरण्यगर्भ मंत्र में परमात्मा के सामर्थ्य का उत्तम वर्णन किया गया है।
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीम् द्यामुतेमाम् कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
-यजु. १३/४
जो हिरण्यगर्भः = स्वप्रकाशस्वरूप, और जिसने प्रकाश करने हेतु सूर्यचन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो भूतस्य = उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का जातः = प्रसिद्ध पति = स्वामी एकः = एक ही चेतनस्वरूप आसीत् = था, जो अग्ने = सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व समवर्त्त = वर्त्तमान था, सः = सो (वह) इनाम् = इस पृथिवीम् = भूमि उत = और द्याम् = सूर्यादि को दाधार = धारण कर रहा है। हम लोग उस कस्मै = सुखस्वरूप देवाय-शुद्ध परमात्मा के लिए हविषा = ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विधेम = विशेष भक्ति किया करें।।
इस मन्त्र में परमेश्वर के सामर्थ्य का निम्न रूप में बोध होता है-
हमने यह वर्णन महर्षिकृत अर्थ की दृष्टि से किया है। प्रथम मन्त्र वर्णित प्रार्थना सफल होगी या नहीं होगी, इस शंका का निवारण हो, इसी दृष्टि से उस ईश्वर के, सविता देव के सामर्थ्य का वर्णन इस मन्त्र में किया गया है। ईश्वरीय सामर्थ्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1. हिरण्यगर्भः - स्वप्रकाशस्वरूप। जिससे प्रार्थना की है वह स्वयं प्रकाशस्वरूप है। उस का प्रकाश उसका स्वयं का है, किसी अन्य तेजोमय पदार्थ से उसका प्रकाश गृहीत नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ प्रथम समुल्लास में ‘हिरण्यगर्भः’ का अर्थ इस प्रकार किया है-
‘ज्योति वै...हिरण्यगर्भः।’
जिसमें सूर्यादिक तेजवाले लोक उत्पन्न हो के जिसके आधार पर रहते हैं अथवा जो सूर्यादिक तेजःस्वरूप पदार्थों का गर्भ नाम उत्पत्ति और निवास स्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम हिरण्यगर्भ है।
उक्त के आधार पर ही महर्षि ने ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ किया स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। सूर्य पृथिवी से तेरह लाख गुणा बड़ा है। जरा कल्पना करें कि सूर्य के तेरह लाख टुकड़े करें तो एक हिस्सा, एक भाग के बराबर पृथिवी है। सूर्य से भी विशाल ग्रह, नक्षत्रों आदि को जो धारण किये हुए है, उसकी विशालता के विषय में सन्देह नहीं रहता है। निश्चय ही वह ईश्वर - ‘महतो महीयान्’ है। यजुर्वेद (३२/८) के अनुसार - ‘स ओतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु’ वह सब में विद्यमान है, विभु-विशाल है।
इस प्रकार विभुत्व की दृष्टि से, विशालता की दृष्टि से उसका सामर्थ्य महान् है।
2. समवर्त्तताग्रे - जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व विद्यमान था। निश्चय से ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों तत्व अनादि हैं। फिर अग्रज की दृष्टि से उसका सामर्थ्य किस अर्थ में समझना चाहिये?
निश्चय से तीन तत्व अनादि है। प्रकृति मात्र जड़ है, उसके जड़त्व के कारण स्वयं कुछ होने का सामर्थ्य नहीं है। दूसरा जीव है। जीव अल्पज्ञ है, अल्पशक्तिवाला है, अतः शरीर निर्माणादि सामर्थ्य से वह हीन है। यह सामर्थ्य तो मात्र-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर में ही है। यजुर्वेद का वचन है-
परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रतिशो दिशश्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभिसंविवेश।।
-यजुर्वेद ३२/११
महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-
‘जो परमेश्वर आकाशादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा है। इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिशा और आग्नेयादि उपदिशाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है अर्थात् जिसकी व्यापकता से अणु भी खाली नहीं है जो अपने भी सामर्थ्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला है, उस आनन्दस्वरूप परमेश्वर को जो जीवात्मा अपने सामर्थ्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होके सदा मोक्ष सुख भोगता है।
इस सृष्टि निर्माणादि के साथ जो जीवात्मा को शरीर के साथ अनेक साधन प्रदान करता है निश्चय से वह अपने इस सामर्थ्य से अग्रज है। ऐसा सामर्थ्यवान् वह अग्रज निस्सन्देह हमारे सम्पूर्ण दुरितों को दूर करने में सक्षम है तथा ‘भद्र’ प्राप्त कराने में भी वह समर्थ है।
3. भूतस्य जातः - उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का वही प्रसिद्ध (स्वामी है)। कितना सामर्थ्यशाली है वह। इस विशाल ब्रह्माण्ड का रचयिता है। वह इसका स्वामी है, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।
‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’
उस धाता ने, सबको धारण करने वाले परमात्मा ने पूर्व के समान सूर्य चन्द्रादि उत्पन्न करके उनको धारण किया है। विविध प्रकार के वृक्ष, पुष्प, फल, रस आदि सभी उसी के उत्पादन सामर्थ्य का परिणाम है। हम अपने शरीर को ही देखें तो इसकी अद्भुत रचना को देखकर उसके उत्पादन सामर्थ्य का बोध हमें होता है।
अन्न खाने के लिए दाँत, रसास्वादन के लिए रसना, विविध प्रकार के शरीर के यन्त्र जो भोजन पचाते हैं, रस बनाकर रक्त में परिवर्तित करते हैं, अशुद्ध रक्त को शुद्ध करके सारे शरीर में रक्त को पहुँचाकर सम्पूर्ण नस नाड़ियों को पुष्ट करने की प्रक्रिया, मज्जा, मांस, अस्थि आदि शारीरिक विकास को करने वाले तत्वों का निर्माण, विविध दृश्यों को देखने वाले सूक्ष्म तन्तुओं से निर्मित नेत्रादि अवयवों के निर्माण का सामर्थ्य जिस ईश्वर में है, उस ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था, श्रद्धा भाव रखना चाहिए, जिससे हमारी कामनायें सफल होगी, यह आशा, विश्वास उसके उत्पादन सामर्थ्य को देखकर हममें होना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति को सब कुछ समझने वाले, वैज्ञानिक को, सामर्थ्यशाली समझने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि समस्त वैज्ञानिक मिलकर भी सिर के एक बाल का निर्माण नहीं कर सकते हैं।
‘लाप्लास’ ने पृथ्वी के अनेक रहस्यों को खोलने वाली रचना लिखी, किन्तु उसमें रचयिता का कोई वर्णन नहीं था। जब मित्रों ने कहा तो लाप्लास का उत्तर था कि मुझे उसकी कोई आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। वह लाप्लास जब मृत्यु की घड़ियां गिनने लगा, तब उस ने अपने मित्र से कहा-रचना का दूसरा संस्करण छपे तो सबसे पहले उस रचयिता को प्रणाम लिखना, उसके रचना सामर्थ्य को मेरा अभिवादन लिखना।
लाप्लास कहता है- उसका सामर्थ्य महान् उसका रचना-कौशल आश्चर्यजनक है, उसके नियम अटल हैं, मैं मरना नहीं चाहता हूँ किन्तु मुझे कोई बलपूर्वक अपनी ओर खींच रहा है, निश्चय से उसका सामर्थ्य अद्भुत है।
4. पतिरेक आसीत् - स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। वह परमेश्वर जिससे हम अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते है वह चेतन स्वरूप ही नहीं अपितु स्वामी है, मालिक है, पति है, पिता है-
त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अथा ते सुम्नमीमहे। - ऋग्वेद ८/९८/११
हे विशाल सृष्टि का निर्माण करने वाले प्रभो! आप ही हमारे पिता हैं। हे आनन्द स्वरूप जगन्नियन्ता प्रभो! हम आपसे, जो परम भद्र है, परम आनन्द है, उसकी याचना करते हैं। हमें अपनी कृपा से परमानन्द प्रदान कीजिये।
वह परमेश्वर ही हमारा सच्चा बन्धु, सखा आदि है। वह ही हमारा सब कुछ देवों का देव है अर्थात् हमारा स्वामी है। वह हमारा ऐसा स्वामी है जो हमारे लिए सभी कल्याणकारी साधन जुटाता है, वह हमारा परम हितैषी है। वह आनन्द का कोष है, हमें आनन्द प्रदान करना चाहता है। किन्तु हम अपने ही दुरितों-दुर्गुण, दुर्व्यसनों के कारण उसके आशीर्वाद को, वरदानों को ग्रहण नहीं कर पाते हैं। हमारी प्रार्थना की सफलता हमारे सत्प्रयत्न एवं आस्था पर, श्रद्धा पर सफल होती है। स्वामित्व की दृष्टि से उसका सामर्थ्य महान् है।
एक बार अकबर ने वीरबल से कहा-‘बीरबल कोई ऐसा कार्य बताओ जिसे मैं कर सकता हूं किन्तु परमात्मा नहीं कर सकता है।’ बीरबल ने बड़े सहजभाव से कहा-‘आप चाहें तो मुझे अपने राज्य से बाहर निकाल सकते हैं। किन्तु वह परमात्मा बड़ा दयालु है वह मुझे अपने राज्य से नहीं निकालता है।’ वह मेरा प्यारा स्वामी है। श्री भगवत गीता के शब्दों में-
पितासि लोकस्य...लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव। -गीता ११/४३
वह परमेश्वर ही चराचर जगत् का पिता है, गुरु से बढ़कर गुरु और पूजनीय है। हे अतिशय विभूतिवाले! तीनों लोकों में तेरे समान कोई दूसरा नहीं है, फिर तुझसे बढ़कर कैसे हो सकता है? ऐसे स्वामित्व की दृष्टि से महान् परमात्मा से हमारी प्रार्थना अवश्य पूर्ण होगी।
5. स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् - वह (इस) भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। वह हमारा प्यारा प्रभु शक्तिमत्ता की दृष्टि से भी महान् है। उसकी महान् शक्तिमत्ता से ही विशाल ब्रह्माण्ड की रचना होती है यजुर्वेद का वचन है-
नाभ्या ...अकल्पयन्। -यजुर्वेद ३१/१३
उस परमेश्वर की सूक्ष्म शक्तिमत्ता से भूमि और सूर्यादि लोकों के मध्यभाग अन्तरिक्ष की रचना और उसके सर्वोत्तम सामर्थ्य से सब लोकों के प्रकाश करने वाले सूर्य आदि लोक उत्पन्न हुए हैं। पृथिवी के परमाणु कारणरूप सामर्थ्य से, शक्तिमत्ता से पृथिवी उत्पन्न की है तथा जल को भी उसके कारण से उत्पन्न किया है, उसने श्रोत्ररूप सामर्थ्य से दिशाओं को उत्पन्न किया है, इसी प्रकार सब लोकों को कारणरूप सामर्थ्य से परमेश्वर ने सब लोक और उनमें बसने वाले सब पदार्थों को उत्पन्न किया है। यह सब उसकी शक्तिमत्ता के कारण है।
अगले अंक में हविषा के विषय में बात करेंगे।
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