भौतिकी में भारतीय योगदान

Author : Neeraj Avinash   Updated: July 08, 2020   2 Minutes Read   30,220

आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात हुआ था कि सृष्टी में मौलिक पदार्थ केवल पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही हैं। अन्य सभी पदार्थ उन्हीं पाँच महाभूतों के भिन्न भिन्न मिश्रण हैं। इसी मूल तथ्य से ही संसार का भौतिक विज्ञान विकसित हुआ है। सर्वप्रथम मानव ने नक्षत्रो, ग्रहों, ऋतुओं तथा वनस्पतियों से प्रत्यक्ष साक्षाताकार कर के प्राकृति के भौतिक स्वरूप में कारण और प्रभाव के सम्बन्धों को जाना है।

प्राचीन काल में आज की तरह की के वैज्ञानिक लेख नहीं लिखे जाते थे। विश्व की सभी भाषाओं में लेखन कार्य सर्व प्रथम पद्य रचना में ही होता था। मन्त्र-लेखन किसी भी तथ्य को सूक्षम कर के समर्ण-योग्य बनाने की शैली है। 

वैदिक साहित्य में भौतिक तत्वों और प्राकृतिक शक्तियों की देवता के रूप में स्तुति कर के उन के लक्षण, गुणों तथा उपयोग का उल्लेख किया गया है। 

वैदिक दर्शन और भौतिकी का सम्बन्ध पढ़े 

वेदों के अतिरिक्त आध्यात्मवाद और भौतिक शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ उपनिष्द, दर्शनशास्त्र और पुराण हैं। इन ग्रंथों के मंत्रों में अध्यात्मवाद के साथ पदार्थों की विशोषताओ (property ), का वर्णन भी दिया गया है।

भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में ईसा से 600 वर्ष पूर्व विशेषिका दर्शन शास्त्रों में भौतिक तत्वों, पदार्थों तथा वनस्पतियों की विशेषताओं का विशलेषण करने का सफल प्रयत्न किया गया है जिन में से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।

अणु शक्ति – वैशेषिका दर्शन शास्त्र के जन्मदाता ऋषि कनाद के अनुसार सृष्टि के सभी पदार्थों का सर्जन उसी पदार्थ के अणुओं से हुआ है। अणु ( atom ) ना तो बनाये जा सकते हैं ना ही समाप्त किये जा सकते हैं। उन को विभाजित भी नहीं किया जा सकता उन का अपना निजि अस्तीत्व शाशवत रहता है। वह ऊर्जा पुंज होते हैं। 

कनाद ने यह भी प्रमाणित किया कि रौशनी तथा ऊष्णता एक ही स्त्रोत्र से हैं और उनमे केवल मात्रा में फर्क है। 

जैन समुदाय के मुनियों के मतानुसार सभी अणु एक ही प्रकार के होते हैं किन्तु उन की भिन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।

ध्वनि और रौशनी – सुश्रत ने सर्वप्रथम अविष्कार किया था कि हम आसपास की वस्तुओं को बाह्य स्त्रोत्र से रौशनी पडने के कारण देख सकते हैं। इसी तथ्य कि पुष्टि कालान्तर में आर्य भट्ट नें भी की। तब तक य़ूनान के दार्शनिक समझते थे कि हम आस पास की वस्तुऐं अपनी आँख की ज्योति के कारण देखते हैं। 

छठी शताब्दी में वराहमिहिर ने वस्तु पर पडने वाले रौशनी के प्रतिबिम्ब का विमोचन कर के वस्तुओं की छाया का आँकलन किया। इसी अविष्कार को आधार मान कर दसवी शताब्दी में मिस्त्र के भौतिक शास्त्री अलहैयथ्म ने विस्तार किया कि प्रथक प्रथक वस्तुओं से रौशनी की तरंगें अलग अलग गति से निकलती हैं।

चक्रपाणी ने सर्वप्रथम अविष्कार किया कि ध्वनि और रौशनी तरंगों के रूप में गतिशील होते हैं और रौशनी की गति ध्वनि से कई गुणा तीव्र होती है। प्रस्तापदा ने इसी तथ्य का विस्तार करते हुये उल्लेख किया कि ध्वनि वायु में वृताकार तरंगों के माध्यम से विस्तरित हो कर गतिशील होती हैं और प्रत्येक ध्वनि की प्रति ध्वनि (echo effect ) भी होती  है। 

वाचस्पति के मतानुसार रौशनी पदार्थों के अणुओं दुारा आँख से टकराती है। यह तथ्य कारपस्कुलर के रौशनी सिद्धान्त जैसा है जो सदियों पश्चात न्यूटन ने किया था।

आकर्षण शक्ति की खोज

यजुर्वेद में व्याख्या की गयी है कि पृथ्वी अपने स्थान पर सूर्य की महान आकर्षण शक्ति के कारण स्थिर रहती है। गुप्त काल के खगोल शास्त्री सभी ग्रहों की गति तथा मार्ग परिधि के बारे में जानते थे तथा उन्हों ने सूर्य और चन्द्र गृहण का कारण तथा समय की गणना के विषय में मौलिक जीनकारी दी है।

आर्य भट्ट – सर्व प्रथम आर्य भट्ट ने ही विश्व को बताया कि 

  1. पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिस के कारण दिन और रात बनते हैं।
  2. तारे अपने स्थान पर स्थिर होते हुये भी गतिशील दिखते हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
  3. पृथ्वी के निरन्तर घूमने के कारण सितारे उदय तथा अस्त होते दिखायी पडते हैं।
  4. उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों पर दिन और रात की अवधि छः मास के बराबर होती है।

आर्य भट्ट ने अपने लेखो में पृथ्वी की परिधि 4967 योजन का उल्लेख किया है तथा पृथ्वी का व्यास 1,5811.24 योजन बताया था। एक योजन 5 अंग्रेज़ी मीलों के बराबर होता है जिस के अनुसार आर्य भट्ट का माप आज के वैज्ञानिक गणना से मेल खाता है। आज के वैज्ञानिको की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 24,835 मील तथा व्यास 79055.24 मील है। 

आर्य भट्ट रचित सूर्य सिद्धान्त पुस्तक में खगोलिक गणनायें आज भी हिन्दू केलेन्डरों में प्रयोग करी जाती हैं।
ब्रह्मगुप्त – (598 – 665 ईसवी) ने नेगेटिव अंकों तथा गणित में शून्य की खोज की। उन का ग्रंथ ब्रह्मस्फुतः सिद्धान्त खगोल शास्त्र के पूर्व ग्रंथ ब्रह्म सिद्धान्त का संशोधन माना जाता है जिस में उन्हों ने पृथ्वी के व्यास तथा धूरी का माप दिया है।
वराहमिहिर – उन्हों ने छटी शताब्दी में खगोल शास्त्र, भूगोल तथा खनिज शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन के मतानुसार चन्द्र का आधा भाग जो सूर्य की ओर रहता है तथा पृथ्वी और सूर्य के मध्य में चक्कर लगाता है सदैव चमकता है और शेष आधा भाग सदैव छाया के कारण अन्धकार ग्रस्त रहता है। जब चन्द्र पर पृथ्वी की छाया पडती है तो चन्द्र गृहण होता है। उसी प्रकार सूर्य पर चन्द्र की छाया पडने से सूर्य गृहण होता है। 

चन्द्र गृहण सदा पश्चिम दिशा से लगता है तथा सूर्य गृहण सदा पूर्व दिशा से लगता है। उन्हों ने गृहण के बारे में जो गणना कर के आँकडे दिये वह पूर्णतया वैज्ञानिक थे।
भास्कर आचार्य – भाषकराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था। उन के ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वस्तुओं की शक्ति के बारे में कहते हैः –
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।

आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या

आकृष्यते तत्पततीव भा समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे ? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आकाश में पृथ्वी, ग्रह, तारे, चन्द्र तथा सूर्य अपनी निश्चित गति, शक्ति तथा स्थान से एक दूसरे को खींचते हैं जिस के कारण सभी अपनी अपनी धुरी तथा परिकर्मा मार्ग से बाहर नहीं होते। यह सिद्धा्न्त न्यूटन के जन्म से सैंकडों वर्ष पूर्व ‘सिद्धान्त-शिरोमणि’ में दर्शाया जा चुका था।

ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7182 मील था और किसी अन्य अनुमान के अनुसार 7905 मील था। आधुनिक वैज्ञानिक इसे 7918 मानते हैं । अन्तर केवल 13 मील का है।


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