सनातन धर्म और ईश्वर

Author : Hari Maurya   Updated: December 03, 2020   3 Minutes Read   23,990

हिन्दू धर्म ग्रंथों तथा सनातन शास्त्रों में ईश्वर के सम्बन्ध में अनेकानेक उद्धरण उल्लेखित हैं। सनातन धर्म ग्रंथों में अभूतपूर्व ज्ञान निहित है।

वस्तुतः प्राचीन काल के ऋषि मुनियों ने अपने तप और साधना का सार इन ग्रंथों में निरूपित किया जिसका प्राथमिक उद्देश्य यही था कि भविष्य की पीढ़ियां ग्रंथों व शास्त्रों में वर्णित ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें और एक स्वस्थ तथा समृद्ध समाज का निर्माण संभव हो सके।

ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ श्लोकों का संग्रह इस प्रकार है जिनको आत्मसात करके मनुष्य ईश्वर के और समीप पहुंच सकता है।

ईश्वर कैसा है

दिव्यो ह्य मूर्तः पूरुषः सबाह्यान्तारो ह्यजः ।

अप्रमाणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात परतः परः ।।

(मुण्डकोपनिषद - 2 : 2 )

भावार्थ - निश्चय ही वह ईश्वर आकर रहित और अन्दर बाहर व्याप्त है ,वह जन्म के विकार से रहित है , उसके न तो प्राण हैं ,न इन्द्रियां है न मन है , वह इनके बिना ही सब कुछ करने में समर्थ हैं। वह अविनाशी हैं और जीवात्मा से अत्यंत श्रेष्ठ है ।

ईश्वर अजन्मा और सर्वशक्तिमान है

न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके ,

न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम ।

स कारणम करणाधिपाधिपो ,

न चास्य कश्चित्जनिता न चाधिपः ।।

(श्वेताश्वतर उपनिषद - 6 : 9 )

भावार्थ - सम्पूर्ण लोक में उसका कोई स्वामी नहीं है ,और न कोई उसपर शासन करने वाला है और न कोई उसका लिंग ( gender ) है, वही कारण भी है और सभी कारणों का अधिपति भी है, न किसी ने उसे जन्म दिया है और न कोई उसका पालक ही है ।

ईश्वर हम सब में है

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।

(गीता- 10:39)

भावार्थ - हे अर्जुन ! मैं सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति का बीज हूँ, चर और अचर कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो मुझसे रहित हो ।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ।

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।

(गीता-10:20)

भावार्थ - हे अर्जुन, मैं सभी जीवों के हृदय में विराजमान हूं। मैं सभी प्राणियों का आरंभ, मध्य और अंत हूँ।

परमेश्वर एक है किन्तु नाम अनेक है

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥

(ऋग्वेद - 1: 164 : 46)

भावार्थ - परमेश्वर एक है किन्तु ईश्वर के अनन्त गुणों के कारण उन्हें सूचित करने के लिए विद्वान् उन्हें इन्द्र , मित्र, वरुण आदि नामों से पुकारते हैं।

ईश्वर ही ब्रह्मा के रूप रचयिता है

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते ।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ।।

(गीता-10.8)

भावार्थ - मैं (नारायण) ही सम्पूर्ण जगत की उप्तत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब प्रवर्तित होता है, बुद्धिमान जो इसे पूरी तरह से जानते हैं, वे मुझे विश्वास और भक्ति के साथ पूजते हैं।

ईश्वर विनाशक और समय भी है

श्रीभगवानुवाच ।

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त: ।।

(गीता-11:32)

भावार्थ - सर्वोच्च प्रभु ने कहा मैं शक्तिशाली समय हूं, विनाश का स्रोत हूं जो दुनिया को खत्म करने के लिए आगे आता है।

ईश्वर को कैसे लोग अत्यंत प्रिय है

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।

निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ।।

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।

मय्यार्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।

(गीता-12:13-14)

भावार्थ - मुझे वे भक्त बहुत प्रिय हैं जो सभी जीवों के प्रति द्वेष से मुक्त हैं, जो मित्रवत हैं, दयालु हैं। जो सम्पत्ति और अहंकार के प्रति आसक्ति से मुक्त हो , सुख - दुःख में समान , क्षमाशील , सन्तुष्ट हैं। जो आत्म - नियंत्रण में दृढ़ है और मन तथा बुद्धि से मुझे समर्पित हैं।

हम ईश्वर के धाम (मोक्ष) को किसी भी प्रकार से प्राप्त कर सकते है

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।

(गीता-18.62)

भावार्थ - हे भारत! तू सब प्रकार (ध्यान योग , दया धर्म और सत्कर्म आदि ) से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा ।।

अंत में गायत्री मंत्र जो वस्तुतः असीम शांति तथा ऊर्जा का अद्भुत श्रोत माना जाता है ।

ॐ भूर् भुवः स्वः।तत् सवितुर्वरेण्यं।

भर्गो देवस्य धीमहि।धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

भावार्थ - हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान को दूर करने वाला हैं - वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए।


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