भारत का धातु विज्ञान

Author : Acharya Pranesh   Updated: February 16, 2020   2 Minutes Read   28,960

आज के आधुनिक समय में धातु हमारी दिनचर्या में इस्तेमाल होनेवाली ऐसी वस्तु है जिसका उपयोग हम सभी किसी न किसी रूप में करते ही है। चाहे आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण हो , या फिर दवाइयों के रूप पे सेवन में आने वाले रसायन। अपने चारो ओर धातु का उपयोग किसी न किसी रूप में  होता ही है। आज धातु के बिना य्यवस्थित जीवन की कल्पना करना भी असंभव सा है। 

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वैसे तो धातु का प्रयोग हर सभ्यता में होता रहा है - चाहे रोमन सभ्यता हो या सिंधु घाटी सभ्यता , ऐतिहासिक तथ्यों से ये स्पष्ट होता है की धातु का उपयोग हर एक सभ्यता में होता आया है। अगर भारत के सन्दर्भ में देखा जाये तो तथ्यों  अभिलेखों से ये प्रमाणित होता है कि ईसा से लगभग 150 वर्ष पूर्व ही भारतीयों को लोहा तथा मिश्र धातुओं के प्रयोग से इस्पात बनाने में सर्वाधिक निपुणता प्राप्त थी। इसके अनेकों प्रमाण ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई के उपरान्त मिले हैं। इस के अतिरिक्त भारतियों को जिस्त मिश्रण तथा पीतल आदि धातुओं का भी ज्ञान था।जिस्त की तकनीक भारत से चीन तथा यूरोप अदि देशों में गयी। 

1735 ईस्वी तक यूरोप के रसायन शास्त्री यही समझते थे कि जिस्ता को धातु के रूप में ताँबे के बिना नहीं बदला जा सकता।

धातु उत्पादन

धातुओं का प्रयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी सनातन काल से ही होता रहा है। कई तरह के रसायन, सोने चाँदी की भस्म, तथा वर्क प्रयोग किये जाते थे। दक्षिण भारत धातु उद्योग के लिये प्रसिद्ध था तथा वहाँ के उत्पादन विश्व विख्यात थे, जिनमे विशेष इस प्रकार है -

कर्नाटक – कर्नाटक पतले और महीन तारों के उत्पादन में प्रसिद्ध था जो संगीत वाद्यों में इस्तेमाल किये जाते थे। उस समय पाश्चात्य तथा अन्य देशों के वाद्य यन्त्रों में तारों के स्थान पर जानवरों की अन्तडियों का प्रयोग किया जाता था।

केरल – केरल लोहे को भट्टियों में ढालने के लिये प्रसिद्ध था। इस के अतिरिक्त केरल के धातु विशेषज्ञ्य धातु को विशेष प्रकार की तकनीक से दर्पण बनाने में भी प्रयोग करते थे जैसा कि अरनमला में किया गया है।

तामिल नाडु – तामिल नाडु से उत्तम प्रकार का इस्पात रोम के अतिरिक्त समस्त विश्व को निर्यात किया जाता था।

आन्ध्र – आन्ध्र प्रदेश का कोनास्मुद्रम विश्व प्रसिद्ध वूटस – स्टील उत्पादन के लिये जाना जाता था। यह इस्पात अस्त्र-शस्त्र बनाने में प्रयोग होता था। सुलतान सलाहुद्दीन की दमस्कस तलवार इसी धातु से निर्मित हुई थी। भारत में लोहे से इस्पात बनाने की कला का प्रति स्पर्धी अन्य कोई देश नहीं था।

राजस्थान – ईसा से 400 वर्ष पूर्व उदयपुर के समीप झावर में जिंक की खाने थीं। 

झेलम के राजा पोरस ने विश्व-विजेता सिकंदर को उपहार स्वरूप स्वर्ण या रजत नहीं भेजे थे अपितु उसे 30 पाऊड उच्च कोटि का भारत निर्मित इस्पात उपहार में दिया था। 

कालान्तर में मुसलिम कारीगर भारत के धातु ज्ञान को पूर्व ऐशिया, मध्य ऐशिया तथा यूरोप ले गये और उसी प्रणाली से दमस्कस तलवारों का निर्माण किया। यह तकनीक भारत से ईरान तथा ईरान से अन्य मुसलिम देशों के माध्यम से यूरोप गयी।

नटराज की प्रतिमा पाँच धातुओं के मिश्रण से बनी है। यूनानी इतिहासकार फिलोत्रस ने भी अपने उल्लेखों में दो से अधिक धातुओं के मिश्रण की भारतीय तकनीक का वर्णन किया है। हिन्दू मन्दिरों के कलश स्दैव स्वर्ण, पीतल तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से तैयार होते थे।

तकनीकी मापदण्डों का निर्माण

छटी शताब्दी में यतिव्रासाभा ने अपनी कृति तिलोयापन्नति में समय तथा दूरी मापने के लिये तालिकायें बनाईं तथा अनिश्चित समय के मापने के परिमाणों का निर्माण किया।

यकास्पति मिश्र ने डेस्कारटेस (AD 1644). से आठ सौ वर्ष पूर्व (840 ईस्वी) में अपनी कृति न्यायसुचि निबन्ध में सोलिड कोर्डिनेट ज्योमैट्री का उल्लेख किया। उस ने यह भी बताया कि किसी भी अंतरीक्ष में एक कण की स्थिति अन्य स्थित चिन्ह से तीन काल्पलिक रेखाओं के मिलान और माप से आँकलन की जा सकती है।

न्याय विशेषिका के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य दिवस की अवधि 1,944,000 क्षण मापी। एक क्षण आधुनिक सैकिण्ड के दशमलव 044 भाग के बराबर होता है। एक ‘त्रुटि’ को समय के लिये सब से छोटा मापदण्ड माना गया है।

शिल्प शास्त्र में लम्बाई मापने कि लिये सब से छोटा मापदण्ड ‘पारामणु’ था जो आधुनिक इंच के 1/349525 भाग के बराबर है। यह मापदण्ड न्याय विशेषिका के ‘त्रास्रेणु’ (अन्धेरे कमरे में आने वाली सूर्य किरण की रौशनी में दिखने वाला अति सूक्षम कण) के बराबर था। वराहमिहिर के अनुसार 86 त्रास्रेणु एक उंगली के बराबर (ऐक इंच का तीन चौथाई भाग) होते हैं। 64 त्रास्रेणु एक बाल के बराबर मोटे होते हैं।

दिल्ली का लोह स्तम्भ

भारत के लोहे तथा इस्पात की कई विशेषतायें थी। वह पू्र्णतया ज़ंग मुक्त थे। इस का प्रत्यक्ष प्रमाण पच्चीस फुट ऊंचा कुतुब मीनार के समीप दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ है जो लगभग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त वँश के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का है और धातु ज्ञान का आश्चर्य जनक कीर्तिमान है। इस लोह स्तम्भ का व्यास 16.4 इन्च है तथा वज़न साढे छः टन है। 

16 शताब्दियों तक मौसम के उतार चढाव झेलने के पश्चात भी इसे आज तक ज़ंग नहीं लगा। कुछ प्रमाणों के अनुसार यह स्तम्भ पहले विष्णु मन्दिर का गरूड़ स्तम्भ था। मुस्लिम शासकों ने मन्दिर को लूट कर ध्वस्त कर दिया था और स्तम्भ को उखाड कर उसे विजय चिन्ह स्वरूप ‘कुव्वतुल-इसलाम मसजिद’ के समीप दिल्ली में गाड़ दिया था।

हाल ही में ईन्डियन इन्टीच्यूट आफ टेकनोलोजी कानपुर के विशेषज्ञ्यों नें स्तम्भ का निरीक्षण कर के अपना मत प्रगट किया है कि स्तम्भ को जंग से सुरक्षित रखने के लिये उस पर मिसाविट नाम के रसायन की एक पतली सी परत चढाई गयी थी जो लोह, आक्सीजन तथा हाईड्रोजन के मिश्रण से तैय्यार की गयी थी। 

ठीक यही परिक्रिया आजकल अणुशक्ति के प्रयोग में लाये जाने वाले पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये डिब्बे बनाने में प्रयोग की जाती है। सुरक्षा परत को बनाने में उच्च कोटि के पदार्थ का प्रयोग किया गया था जिस में फासफोरस की मात्रा लोहे की तुलना में एक प्रतिशत के लगभग थी। आज कल यह अनुपात आधे प्रतिशत तक भी नहीं होता। 

फासफोरस का अधिक प्रयोग प्राचीन भारतीय धातु ज्ञान तथा तकनीक का प्रमाण है जो धातु वैज्ञानिकों को आश्चर्य चकित कर रही है।

आजकल विकसित देश टेक्नोलोजी ट्रांसफर को हथियार बना कर अविकसित देशों पर आर्थिक दबाव बढाते हैं। जो लोग पाश्चात्य तकनीक की नकल करने की वकालत करते हैं उन्हें स्वदेशी तकनीक पर शोध करना चाहिये ताकि हम आत्म निर्भर हो सकें और विश्व को उच्च कोटि के उपकरण व् सुविधाएं दे सकें ।


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