वैसे तो मंदिर को केवल धार्मिक क्रिया कलापों के केंद्र के रूप में देखा जाता है पर सत्य तो यह है की हिंदू मंदिर सदा से ही समाज तथा भारतीय सभ्यता के केंद्रबिंदु के रूप में स्थापित रहे हैं। मंदिर आध्यात्मिक तथा अन्य धार्मिक गतिविधियों के साथ-साथ विविध प्रकार के समाजोपयोगी गतिविधियों के भी प्रमुख केंद्र रहे हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल से लेकर अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी तक हिन्दू मन्दिर ज्ञान-विज्ञान, कला, साहित्य आदि के साथ-साथ महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों के संचालक तथा नियामक भी होते थे।
भारत के आर्थिक इतिहास में मंदिरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह तो हम आज भी देख सकते हैं कि हमारे मंदिर अकूत धन-सम्पदा के भंडार हैं। तिरूपति मंदिर की वार्षिक आय की बात हो या फिर प्राचीन पद्मनाभ मंदिर से मिला खजाना हो, मंदिरों में धन का प्रवाह तब से लेकर आज तक अविरल चलता आ रहा है।
प्राचीन तथा मध्यकाल में मंदिर बैंक की भूमिका भी निभाते रहे हैं। लोग मंदिरों में अपनी बहुमूल्य वस्तुएं तथा पैसा जमा करते थे। मंदिरों के प्रति अगाध निष्ठा तथा मंदिर के न्यासियों के द्वारा अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन के कारण लोग अपनी जमा-पूंजी को वहां सबसे अधिक सुरक्षित समझते थे। व्यापारिक निगम भी मंदिरों के रख-रखाव तथा सुचारू रूप से सञचालन के लिए नियमित अंतराल पर दान देते रहते थे।
राजा भी अपने कोष को मंदिर में सुरक्षित रखते थे तथा आपातकाल में मंदिरों से उधार भी लिया करते थे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कौटिल्य ने अर्थशास्त्रा में देवताध्यक्ष का विधान बताया है तथा मंदिरों की सम्पदा को राज सम्पदा के रूप में रखा है। आपातकाल में राजा को उस सम्पदा का प्रयोग करने का अधिकार होता था।
दक्षिण भारत में मंदिर कृषि-विकास सिंचाई आदि के महत्वपूर्ण स्तम्भ हुआ करते थे। चोल और विजयनगर साम्राज्य में कृषि-विकास तथा सिंचाई योजना के लिए अलग से किसी विभाग का प्रावधान नहीं था अपितु ऐसी योजनायें मंदिरों तथा अन्य स्वतंत्रा इकाइयों द्वारा संचलित की जाती थी। स्थानीय क्षेत्रों के विकास में मंदिरों द्वारा भूमिका निभाए जाने का वर्णन कई ऐतिहासिक अभिलेखों से प्राप्त होता है।
के वी रमण ने श्री वरदराजस्वामी मंदिर, कांची पर वर्ष 1975 के अपने शोध पत्रा में मंदिर को जमींदार के रूप में तथा निर्धनों को राहत पहुंचाने वाली संस्था के रूप में भी चिन्हित किया है। बड़े मंदिर सैकड़ों लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करते रहे हैं। के वी रमण अपने शोध पत्रा में मंदिर से जुड़े राजमिस्त्राी, कुम्हार, गाड़ीवान, मशालवाहक, रसोइयों तथा लुहारों की जुड़े रहने की बात करते हैं। सहस्रबाहु मंदिर से प्राप्त अभिलेख बड़े स्तर पर लकड़ी के काम करने वाले, अभियंताओं तथा अनेक प्रकार के लोगो की नियुक्ति को प्रमाणित करते हैं। इसी प्रकार आर नागास्वामी अपने शोधपत्रा में दक्षिण भारतीय मंदिरों को प्रमुख नियोक्ता के रूप में स्थापित करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मंदिरों में केवल पूजा-पाठ ही नहीं हुआ करता थे, अन्य आर्थिक गतिविधियां भी चलती थीं।
सिंथिया टैलबोट अपने शोधपत्रा में दक्षिण भारतीय मंदिरों को शिल्पियों तथा कलाकारों को रोजगार प्रदान करने वाली तथा किसानों और चरवाहों को जमीन और ऋण प्रदान करने वाली संस्था के रूप में स्थापित किया हैं। मंदिरों की आय के प्रमुख स्रोत राजाओं, व्यापारियों तथा किसानों से प्राप्त होने वाला दान रहा है।
उल्लेखनीय है कि भारत कृषि और वाणिज्यप्रधान देश होने के साथ-साथ धर्मप्रधान देश भी है। यहाँ हर महीने कुछ ऐसे व्रत-त्यौहार होते हैं जिनमे सब लोग अपने सामर्थ्य के अनुरूप दान करते हैं। प्रख्यात आर्थिक इतिहासकार अंगस मेडीसन के अनुसार प्राचीन काल से अट्ठारहवीं शताब्दी तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थअव्यवस्था रहा है। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है।
भारत में एक प्रचलित कहावत है ‘सबै भूमि गोपाल की’ अर्थात यहाँ लोग अपने को सम्पति का मालिक नहीं बल्कि उसका न्यासी अथवा देख रेख करने वाला मानते रहे हैं और अपनी इसी वृति के कारण दान भी बहुत उदारता से करते रहे हैं। इसके कारण मंदिरों में अकूत संपत्ति जमा होती गई।
मंदिरों को मिलने वाले दान में मुख्यतः जमीन, स्वर्ण आदि आभूषण तथा अनाज रहे हैं। साहित्य के अलावा अभिलेखों से भी हमें मंदिरों को मिलाने वाले दान की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। एम जी एस नारायणन और केशव वेलुठाट के अनुसार दक्षिण भारतीय मंदिर स्वर्ण, रजत तथा अन्य बहुमूल्य धातुओं के गोदाम बन चुके थे। राजा मंदिरों को दानस्वरुप जमीन या गाँव प्रदान करते थे जो मंदिरों की नियमित आय के साधन थे। दक्षिण भारत के एक-एक मंदिर के पास 150 से 300 गावों की जमींदारी थी। मंदिर प्रबंधन जमीन को किसानो को खेती करने के लिए जमीन किराये पर देता था और उपज का एक निश्चित भाग किसान से ले लेता था। यह मंदिरों की आय का एक नियमित तथा महत्वपूर्ण भाग था।
भारतीय मंदिर अपने आय का बहुतांश कृषि विकास, सिंचाई योजनाओं तथा अन्य आर्थिक क्रियाओं में निवेश करते थे। तिरुपति मंदिर इसका एक प्रमुख उदहारण है जिसने विजयनगर साम्राज्य के काल में अनुदान के रूप में प्राप्त संसाधनों का प्रयोग कृषि के विकास के लिए किया था। तिरुपति मंदिर द्वारा सिंचाई योजनाओं को सुचारु रूप से चलाने में विजयनगर साम्राज्य से प्राप्त राजकीय अनुदान का महत्वपूर्ण योगदान था।
वर्ष 1429 के एक अभिलेख के अनुसार विजयनगर सम्राट देवराय द्वितीय ने विक्रमादित्यमंगला नामक गाँव तिरुपति मंदिर को दान किया था जिसके राजस्व से मंदिर के धार्मिक कार्य सुचारू रूप से चलते रहे। बाद में 1495 में अपने कुल अनुदान 65 हजार पन्नम में से तेरह हजार पांच सौ पन्नम विक्रमादित्यमंगलम गाँव में सिंचाई योजना पर काम करने लिए दिया था।
इस प्रकार हम पाते हैं कि सिंचाई योजनाओं के माध्यम से कृषि योग्य भूमि का विकास भारतीय मंदिरों विशेषकर दक्षिण भारतीय मंदिरों के अनेक आर्थिक क्रियाकलापों में से एक था। अपने प्रभाव क्षेत्रा में हर मंदिर एक महत्वपूर्ण आर्थिक संस्था होता था। प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार नीलकंठ शास्त्राी के अनुसार मंदिर एक जमींदार, नियोक्ता, वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोक्ता तथा एक बैंक की भूमिका निभाता था। ग्यारहवीं सदी के एक अभिलेख के अनुसार शिक्षकों और पुजारियों के अतिरिक्त तंजौर मंदिर में 609 कर्मचारी कार्यरत थे। एक अन्य अभिलेख के अनुसार विजयनगर सम्राज्य के काल में तुलनात्मक रूप से एक छोटे मंदिर में 370 कर्मचारी कार्यरत थे। मंदिर स्थानीय उत्पादों के बड़े उपभोक्ता भी थे।
अनेक अभिलेखों में इस बात के वर्णन हैं कि मंदिर व्यक्तिविशेष या ग्राम समाज को ऋण भी उपलब्ध कराता था तथा बदले में उनकी जमीन बंधक के रूप में रखता था। उसकी उपज ब्याज के रूप में प्रयोग करता था।
इस प्रकार हम पाते हैं कि मंदिरों के अन्य स्थानीय इकाइयों से भी गहरे आर्थिक संबध थे, न केवल दान प्राप्तकर्ता के रूप में बल्कि जमींदार, नियोक्ता, उपभोक्ता, तथा ऋण प्रदान करने वाली एक सुदृढ़ आर्थिक संस्था के रूप में भी।
मंदिर धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ एक मजबूत स्थापित आर्थिक केंद्र भी होते थे और समाज के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे ।
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