सनातन हिन्दू ग्रंथो में विश्व भर में चार ऐसे वट वृक्षों का उल्लेख मिलता है जो विशेष महत्त्व के है। इन वट वृक्षों को अक्षय माना गया है। ये चार वट वृक्ष है - प्रयागराज का अक्षयवट , वृन्दावन का वंशीवट , उज्जैन का सिद्धवट, और गया का अक्षयवट जिसे गयावट भी कहा जाता है।
गया का गयावट या अक्षयवट बिहार के गया शहर में मंगला गौरी मंदिर के समीप ही स्थित है। अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी नाश न हो , जो अजर हो , इसी कारण इसे अक्षयवट कहा जाता है। अक्षयवट पिण्ड दान की वेदियों में एक प्रमुख वेदी है।
ऐसा माना जाता है कि इस वटवृक्ष का रोपण स्वयं ब्रम्हा जी ने किया था और तब से अनादि काल से ही गयावट ( अक्षयवट ) ज्यो का त्यों है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार इस वटवृक्ष को सीता माता ने रामायण काल में आशीर्वाद दिया था। ऐसा माना जाता है कि वन गमन के क्रम में भगवान राम , सीता माता और लक्ष्मण जी के साथ इस प्रदेश में आये थे , तब उनको दशरथ जी के निधन का समाचार प्राप्त हुआ था। भगवान राम और लक्ष्मण जी पिण्ड दान हेतु आवश्यक सामग्री लाने चले गए।
इसी बिच पिण्ड दान का मुहूर्त बीता जा रहा था , इस वजह से इसी स्थान पर सीता माता ने बालू के पिंड बनाकर अपने हाथों दशरथ जी का पिंड दान संपन्न किया ताकि दशरथ जी को मोक्ष की प्राप्ति हो सके ।
पिण्ड दान के लिए सीता माता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष , ब्रम्हयोनि पर्वत और केतकी के फूल को साक्षी बनाया था। जब भगवान राम लौटकर वापस आये और सीता माता ने उन्हें बताया की उन्होंने पिण्ड दान संपन्न कर दिया तब भगवान आश्चर्यचकित हो गए और उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि बिना सामग्री के पिण्ड दान कैसे हुआ।
पिण्ड दान को प्रमाणित करने के लिए सीता माता ने फल्गु, गाय, वटवृक्ष , ब्रम्हयोनि पर्वत और केतकी के फूल को भगवान के सम्मुख किया। भगवान के डर से सभी मुकर गए केवल वटवृक्ष ने पिण्ड दान को प्रमाणित किया।
इससे कुपित होकर सीता माता ने फल्गु को बिना पानी की नदी , गाय के गोबर को शुद्ध , ब्रम्हयोनि पर्वत को बिना वृक्ष का पर्वत और केतकी के फूल को शुभ कार्यो से वंचित रहने का श्राप दे दिया वही वटवृक्ष को अक्षय होने का आशीर्वाद दिया।
ऐतिहासिक और पर्यटन के दृष्टिकोण से अक्षयवट अपने आप में युगो पुरानी घटना का साक्षी रहा है।
विश्व भर में गया में पिण्ड दान संपन्न कराने का विशेष महत्त्व है जहा एक साथ कई पीढ़ियों का पिण्ड दान किया जा सकता है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार अक्षयवट पे पितरों को किये गए तर्पण का पुण्य कभी समाप्त नहीं होता है।
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