मनुस्मृति और मनुवाद

Author : Neeraj Avinash   Updated: July 08, 2020   3 Minutes Read   32,510
मनुस्मृति और मनुवाद Photo Credit Sunil Kumar from NNS Media

हममे से सभी ने कभी न कभी, किसी न किसी रूप में मनुस्मृति और मनुवाद जैसे शब्द को अवश्य ही सुना होगा , पर क्या कभी जानने की कोशिश कि आखिर ये मनुवाद है क्या ? हम बार-बार मनुवाद शब्द तो सुनते हैं , पर ये शब्द अपने आप में ही अनेको प्रश्नो को जन्म दे जाता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या ?

मनुस्मृति और मनुवाद को समझने के लिए हमे इसके मूल में जाना होगा जो महर्षि मनु से शुरू होता है। महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता है, मानव सभ्यता के आदि शासक माने जाते हैं। महर्षि मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य भी कहा जाता है। वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य महर्षि मनु की ही संतान है। पूरी सृस्टि में सिर्फ मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे वैचारिक शक्ति प्राप्त है।

प्रत्येक सभ्यता के सुनियोजित संचालन के लिए कुछ नियम आवश्यक है जो समाज को सही दिशा प्रदान कर सकता है। बिना नियम के कोई भी समाज सुनियोजित रूप से संचालित नहीं हो सकता है। बिना नियम और योजना के समाज की वही दशा हो जाएगी जैसे पशु प्रजाति में देखने को मिलती है।

महर्षि मनु ने मनुस्मृ‍ति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।

मनुस्मृति : समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं , नियम, कर्तव्य , दायित्व मनु महाराज ने बताया है , उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह पूर्णतः वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति की रचना की ।

वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है - धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।

इसे यदि वर्तमान संदर्भ में देखा जाये तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है बिना किसी भेदभाव के , जहा बड़े या छोटे , ऊँचे या नीचे का कोई भेद नहीं।

वर्तमान समय में जिसे हम धर्म कहते हैं दरअसल वे धर्म न होकर संप्रदाय हैं। धर्म का शाब्दिक अर्थ देखा जाये तो धर्म वो है जिसको धारण किया जा सके। मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय मात्र हैं।

संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि सर्वथा अनुचित है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्‍यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है , न की धारक तत्व की ।

मनु महाराज ने भी कर्तव्य पालन पर ही सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, पर कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। बल्कि सत्य तो यह है की जहा अधिकार होते है , वहा अधिकारों से ज्यादा कर्तव्य होता है। पर हमे अधिकार तो चाहिए पर अपना कर्तव्य निभाने से हिचकते है। यही एकमात्र कारण है जो आज समाज में इतनी ज्यादा विसंगतियां देखने को मिलती हैं।

मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में तो महर्षि मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।

मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक बड़ा वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ है । पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।

मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को ही सामने लाना चाहिए। कारण की विद्वान के ऊपर समाज को सही दिशा देने का भार भी होता है , ऐसे में यदि विद्वान भी स्वयं मिथ्या अवधारणा का शिकार हो जाएंगे तो समाज को एक स्वस्थ दिशा कौन प्रदान करेगा।

दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के रूप में दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।

पंडित, पुजारी बनने के लिए ब्राह्मण होना जरूरी है : पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं है। यहां ब्राह्मण से तात्पर्य श्रेष्ठ व्यक्ति से है न कि जातिगत व्यक्ति से । आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है।

ऋषि दयानंद सरस्वती की संस्था आर्यसमाज में हजारों ऐसे विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित ऐसे भी हैं जो जन्म से दलित वर्ग से आते हैं।

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)

महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को।

इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं।

विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।


Disclaimer! Views expressed here are of the Author's own view. Gayajidham doesn't take responsibility of the views expressed.

We continue to improve, Share your views what you think and what you like to read. Let us know which will help us to improve. Send us an email at support@gayajidham.com


Get the best of Gayajidham Newsletter delivered to your inbox

Send me the Gayajidham newsletter. I agree to receive the newsletter from Gayajidham, and understand that I can easily unsubscribe at any time.

x
We use cookies to enhance your experience. By continuing to visit you agree to use of cookies. I agree with Cookies