वैसे तो ज्ञान अर्जन की कोई निश्चित सीमा नहीं है और ज्ञान कही भी , किसी भी अवस्था या स्तिथि में प्राप्त किया जा सकता है। आज के आधुनिक परिवेश में भले ही ज्ञान अर्जन की परिभाषा पूर्णतः बदल गई है जो पाश्चात्य ( मैकाले ) शिक्षा पद्धति से प्रभावित हो गई है। परन्तु आज भी प्राथमिक ज्ञान के लिए माता-पिता का संरक्षण और घर के वातावरण में यम - नियम और सन्ध्या आदि के दैनिक कर्म उतने ही प्रासंगिक है जितने गुरुकुल काल में थे जो बच्चे के मानस पटल पे उच्च संस्कार स्थापित करने की प्रथम सीढ़ी रही है।
गुरुकुल में ज्ञान पीढी दर पीढी मौखिक तथा लिखित माध्यम से गुरू-शिष्य परम्परा दूारा वितरित किया जाता था। भारत के ऋषि आज के गुरूओं की तरह ‘गुरू-मंत्रों’ का व्यापार नहीं करते थे जैसे आज होता है। पहले रजिस्ट्रेशन करो , फिर गुरु शिष्य के कान में मन्त्र पढ़ेंगे और तब जाकर शिष्य बनेगा और दक्षिणा की बात करे तो उसके बिना तो कोई प्रक्रिया ही आगे नहीं बढ़ेगी ।
गुरुकुल काल में ऋषि कोई निजी समुदाय भी नहीं बनाते थे और न ही विद्या दान की कोई विशेष प्रकार की योग्यता का मानदंड ही होता था । गुरू शिष्य में केवल जिज्ञासा, परिश्रम करने की लग्न और चरित्र को देखते थे।
ज्ञान का लक्ष्य तथ्यों के आँकडे जुटाना नहीं वरन विद्यार्थी के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना होता था जिस के तीन मुख्य अंग थेः –
श्रृवण – ध्यान पूर्वक ज्ञान को सुन कर गृहण करना,
मनन – श्रृवण किये गये ज्ञान पर स्वतन्त्रता पूर्वक विचार करना, तथा
निद्यासना – ज्ञान को जीवन में क्रियान्वित करना।
दिूतीय स्तर पर गणित, अंकगणित, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, आकाश और गृहों का ज्ञान सम्मिलित था। स्नातकों को वेद ज्ञान में पारंगत होना पडता था।
जो निर्धारित स्तर तक नहीं पहुँच पाते थे, उन्हें वैश्य व्यवसाय अपनाने का परामर्श दिया जाता था। जो विद्यार्थी दिूतीय स्तर के परीक्षण में सफल होते थे, वह और आगे उच्च शिक्षा गृहण कर सकते थे। उन्हें ऋभु कहा जाता था और वह अशविन (वैज्ञिानिकों) के साथ रह कर रथ, विमान, जलयान के आविष्कारों तथा निर्माण में अपना योगदान करते थे।
इस के ऊपर दक्ष पारंगतों को अंतरीक्ष विज्ञान, दार्शनिक ज्ञान आदि के विशेष क्षेत्रों में आचार्य आदि की संज्ञा से सुशोभित किया जाता था।
गुरुकुल काल में स्नात्कों के सम्मान के लिए विद्यालयों तथा परिशिक्षण संस्थानों द्वारा प्रमाणपत्र देने की परम्परा उस समय नहीं थी , परन्तु स्नातकों का वर्गीकरण करने की प्रक्रिया अवश्य थी -
‘ब्रह्मचर्य’ – प्रथम स्तर के उन ब्रह्मचारी स्नात्कों को जो 24 वर्ष की आयु तक अविवाहित रह कर शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें ‘ब्रह्मचर्य’ की उपाधि से सुशोभित किया जाता था।
‘रुद्राई’ – 36 वर्ष तक ज्ञान प्राप्त करने वाले को ‘रुद्राई’ कहा जाता था।
‘आदित्य’ - 44 वर्ष से 48 वर्ष तक के शिक्षार्थी को ‘आदित्य’ कहते थे।
आधुनिक संदर्भ में उन्हें क्रमशः ग्रेजुऐट, पोस्ट ग्रेजुऐट और डाक्ट्रेट आदि कहा जा सकता हैं।
कालान्तर में वैदिक क्षेत्र में भी दक्षता के प्रमाण स्वरूप वेदी, दिूवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी की उपाधियाँ नामों के साथ संलग्न होने लगीं। धीरे धीरे वह जन्मजात हो कर जाति की पहचान बन गयीं और उन का व्यक्तिगत योग्यता से सम्पर्क पूर्णतः खंडित हो गया।
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