समस्त विश्व में मूलतः तीन प्रकार की शिक्षा प्रणाली देखने में आती है जिनका उद्देश्य भी भिन्न है। पहली शिक्षा प्रणाली जो सनातन शिक्षा प्रणाली है जिसका उद्देश्य है संस्कार वृद्धि , दूसरी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य है संतान वृद्धि , और तीसरी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य है संसार वृद्धि।
इनमें से पहली संस्कार वृध्दि वाली शिक्षा प्रणाली भारत की शिक्षा प्रणाली है जो गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली कही जाती है। इसमें व्यक्ति से लेकर समष्टि तक का निर्माण करने की एक पूरी व्यवस्था है ।
दूसरी शिक्षा प्रणाली संतान वृद्धि की है , जो इस्लाम की शिक्षा प्रणाली है। जहां पर हिंसा और यौन शिक्षा प्रमुखता है और उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं । कुरान , हिंसा और यौनाचार यह तीनों एक साथ चल सकते हैं लेकिन कुरान और कंप्यूटर साथ - साथ चल सकें यह संभव नहीं है । इस शिक्षा व्यवस्था में सब कुछ अवैज्ञानिक और अतार्किक है , इसलिए कुरान और कंप्यूटर का मेल नहीं हो सकता।
तीसरी शिक्षा प्रणाली है संसार वृद्धि की । संसार वृद्धि से हमारा अभिप्राय यहां पर भौतिकवाद को बढ़ावा देने वाली शिक्षा से है , और यह यूरोपियन शिक्षा प्रणाली है , जिसे भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के नाम से जाना जाता है।
इनमे भारत की गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था सर्वोत्तम है जिसमे समस्त व्यक्तित्व निर्माण की क्षमता निहित है। इस व्यवस्था में हर वर्ण के हिसाब से उसके सर्वांगीण विकाश की व्यवस्था है और शिक्षा व्यवस्था यथोचित वर्णाश्रमो में विभाजित है। इस शिक्षा व्यवस्था में वानप्रस्थ का भी उल्लेख मिलता है जिसे आज की आधुनिक भाषा में हम retirement के नाम से जानते है।
1.ब्राह्मण वर्णाश्रम: भारतीय एवं वैदिक परम्परा के अनुकूल शिक्षा देने के लिए हमारे गुरुकुल स्थापित किये जाते हैं। परंतु हमारी गुरुकुलीय शिक्षा भी अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति के पद्चिन्हों पर चल कर इकतरफा शिक्षा दे कर अधिकांश पुरोहित, उपदेशक, अध्यापक से अधिक कुछ विशेष नहीं दे पाई है। कहा जा सकता है कि हमारी गुरुकुलीय शिक्षा ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा देती है। इस में भी गुरुकुलों में वेदाध्ययन और वेद अनुसंधान को एक नयी दिशा देने की आवश्यकता है।
जीवन यापन के लिए जिन वर्णाश्रमों के धर्म के पालन से मानव समाज सुव्यवस्थित होता है उस सब का प्रशिक्षण ब्रह्मचर्याश्रम में देना, हमारे गुरुकुलों का लक्ष्य होना चाहिये।
2.क्षत्रिय वर्णाश्रम: बदले हुए आधुनिक परिपेक्ष में क्षत्रिय धर्मका पालन आज सेना, पोलीस, प्रशासन अधिकारी सेवाओं द्वारा किया जाता है। इन विभागों में भिन्न भिन्न स्तर पर भरती की जाती है। सब भारतीय प्रादेशिक भाषाओं हिंदी एवं संस्कृत के द्वारा इन सेवाओं में प्रवेश सम्भव है। इन सेवाओं में प्रवेश पाने के लिए के लिए प्रतियोगताओं / परीक्षाओं के आवेदन पत्र भरे जाते हैं। गुरुकुलों में जिन ब्रह्मचारियों की शारीरिक व्यायाम , खेल कूद, मिलनसारिता Social skills इत्यादि में भी रुचि होती है उन्हें इन परीक्षाओं / प्रतियोगताओं के लिए विशेष रूप से तैयार कराना चाहिये. (हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि इस दिशा में गुरुकुलों के अनेक ब्रह्मचारी अपने व्यक्तिगत जिज्ञासा प्रकट करते हैं)
3. वैश्य वर्णाश्रम: के लिए गोकृषि और उस से सम्बंधित औद्योगिक, यांत्रिक, वैज्ञानिक विषयों के प्रशिक्षण पर गुरुकुलों को अपने पाठ्यक्रमों में सुविधाएं स्थापित करनी चाहिये. (गोकृषि –जैविक खाद्यान्न का हमारी वैदिक परम्परा के अनुरूप आज हमारे देश ही में नहीं समस्त विश्व में स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण के प्रति चेतना के कारण विशेष महत्व हो गया है)
भौतिक साधन: अधिकांश गुरुकुल ग्रामीण आरण्यक क्षेत्रों मे होने के कारण गोकृषि के प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त वतावरण में होते हैं .
शिक्षक वर्ग: के लिए अवकाश प्राप्त वानप्रस्थियों की ऋग्वेद 10.4 की वैदिक योजना से सुंदर और कोई व्यवस्था नही सोची जा सकती.
ऋ10.4 ऋषि:-त्रित आप्त्य:,अग्नि: देवता-
राजा का वानप्रस्थ गुरुकुल प्रशिक्षण की आधारभूत वैदिक योजना
Retirement of Politicians, expert sportsmen, Academicians etc.
( निरुक्त भाष्य- भाष्यकार श्री चंद्र्मणि विद्यालंकार पालीरत्न , के आधार पर)
सूक्त का देवता 'अग्नि:' है. अग्नि से यहां अभिप्राय वनस्थ आश्रमी है, जिस को प्रत्न राजन् कह कर सम्बोधित किया है . (प्रत्न राजन्) वृद्ध राजन् वनस्थ; क्योंकि वह वनस्थ अग्नि-प्रधान होता है. वह गृहस्थ के अन्य सब सामान छोड कर यज्ञोपकरणो को ले कर ही वन में जाता है , वहां पांचों, यज्ञ तथा अन्य पक्षेष्टि याग आदि करता है. अत: वनी को 'अग्नि' कहा गया है। समाज के वरिष्ट विद्वान वानप्रस्थ आश्रम का निर्वाह वनों मे आवास स्थापित कर के अपने जीवन के बहुमूल्य अनुभव और ज्ञान को समाज, राष्ट्र, पर्यावरण, के लिए किस प्रकार समाज को उपलब्ध कराते थे यह इस ऋग्वेदीय उपदेश का विषय है वानप्रस्थी राजा. समाज के अनुभवी वरिष्ट-नेतागण, शिक्षाविद ,भिन्न भिन्न क्षेत्रों में निपुण- गृहस्थाश्रम निवृत्त जनों का वानप्रस्थ आश्रम धारण करके गुरुकुल जैसी शिक्षा प्रणाली में कैसे योगदान होता है यह इस वेद सूक्त का विषय है.
1.प्र ते यक्षि प्र त इयर्मि मन्म भुवो यथा वन्द्यो नो हवेषु |
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन ||ऋ10.4.1
हे वनस्थ में तेरी संगति करता हूं, और तेरे मन को प्राप्त करता हूं.जिस से आप हे वंदनीय वृद्ध राजन स्वाध्याय शिक्षा यज्ञ. यागादि से इस ( आप का इस वनांचल में आवास समाज, पर्यावरण राष्ट्र के लिए) मरु भूमि मे एक जल के स्रोत जैसे हों.
2.यं त्वा जनासो अभि संचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।
दूतो देवानामसि मर्त्यानामन्तर्महाँश्चरसि रोचनेन || RV10.4.2
हे ज्ञान प्रापक तथा अज्ञान नाशक वनस्थ जैसे शीत-काल के समय गर्म गोशाला में गायें आ कर रहती हैं वैसे ही आप के पास अविद्या से बचने के लिए विद्यार्थी लोग आ कर रहते हैं , आप खिलाडी युवाजनों को दुष्कर्मों से निवारण करने वाले हो. आप के महान सानिद्यमें दीप्ति और प्रीति के साथ युवा विद्यार्थी रहते हैं. -
3.शिशुं न त्वा जेन्यं वर्धयन्ती माता बिभर्तिसचनस्यमाना।
धनोरधि प्रवता यासि हर्यञ जिगीषसे पशुरिवावसृष्ट: ||RV10.4.3
जैसे माता अपने बच्चे की वृद्धि करते हुए उसे पालती है, उसी प्रकार हे वनस्थ अपने चित्त वृत्तियों पर जितेंद्रिय हो कर वेद ज्ञान में संयुक्त हो कर समाज की उन्नति के लिए समाज के भविष्य का निर्माण करें.
4.मूरा अमूर न वयं चिकित्वो महित्वमग्ने त्वमङग वित्से।
शये वव्रिश्चरति जिह्वयादन रेरिह्यते युवतिंविश्पतिः सन् || RV10.4.4
हम साधरण लोग मूढ हैं, आप वनस्थ संसार का अनुभव प्राप्त करके अमूढ है, और अपने ज्ञान का महत्व समझते हैं, अपनी वाणी द्वारा शिक्षा देते हुए अपने वनस्थ आश्रम मे विचरते हो. प्रजा पालक होते हुए आप स्वयं ब्रह्म से मिलाने वाली ब्रह्मविद्या का निरंतर आस्वादन करते हो.
5.कूचिज्जायते सनयासु नव्यो वने तस्थौ पलितो धूमकेतुः।
अस्नातापो वृषभो न प्र वेति सचेतसो यं प्रणयन्त मर्ताः || RV10.4.5
जब किसी के पुत्र के पुत्र का जन्म हो जाए, उस के बाल पक कर सफेद हो जाएं, तब उस का वनस्थ आश्रम में निवास उचित है. तब वानप्रस्थियों को समान चित्त वाले विद्यार्थी उपलब्ध कराये जाएं. जिस से वे उन विद्यार्थियों को अशुद्ध कर्मों के त्याग कर शुद्ध आचरण धारण करके वीर्यवान ब्रह्मचारी बनाए.
6.तनूत्यजेव तस्करा वनर्गु रशनाभिर्दशभिरभ्यधीताम्।
इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथंन शुचयद्भिरङ्गै: || RV10.4.6
हे वनस्थ ! अपने शारीरिक सुख की परवाह किये बिना आप के पवित्र हाथ यज्ञ कर्मों को भली भांति धारण करने की मानसिक इच्छा से आप के संकल्प की पूर्ति के लिए इस रथ रूपी शरीर को इस पुण्य कार्य में सन्युक्त करें.
7.ब्रह्म च ते जातवेदो नमश्चेयं च गीः सदमिद्वर्धनी भूत्।
रक्षा णो अग्ने तनयानि तोका रक्षोत नस्तन्वो: अप्रयुच्छन || RV10.4.7
हे विद्वान् वनस्थ ! परमेश्वरार्चन, नम्रता और यह वेद वाणी आप को सदैव वृद्धि देनेवाले हों. आप प्रमाद रहित हो कर हमारे पुत्र तथा पौत्रों की विद्या दान द्वारा समाज की रक्षा कीजिये।
अब बात आती है की गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था सर्वोत्तम होकर भी भारत में लागू क्यों नहीं हो पाती ? सर्वोत्तम होकर भी हम इसे अपनाते क्यों नहीं ?
इसका मूल कारण है कि संसार में संतान वृद्धि और संसार वृद्धि की शिक्षा देने वालों की बहुतायत है , उनका वर्चस्व है। हम वैश्विक मंचों पर उनके सामने अपने आप को हीन भाव से ग्रस्त पाते हैं और जब भारत में आते हैं तो भारत के भीतर भी अधिकतर लोग ऐसे हैं जो भारत के धर्म में आई विकृतियों को अर्थात पुराण वाद को ही भारत की मूल धारा के रूप में चित्रित करते हैं।
मुट्ठी भर वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाले आर्य जन हैं जिन की आवाज देश में ही दबकर रह जाती है। इसलिए भारत की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली सर्वोत्तम होकर भी भारत में ही लागू नहीं हो पाती । देश की सरकारें तुष्टिकरण में लगी रह जाती हैं और वह पुष्टिकरण नहीं कर पाती और यही कारन है की भारत अपने गौरवमयी विरासत को सहेज कर नहीं रख पाया और कभी श्रेष्ठ भारत नहीं बन पाता।
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