विश्व में विभिन्न लोग विभिन्न धर्म , पंथ को मानते हैं। हर धर्म की अपनी विशेषता है जिसे उस धर्म के अनुयायी विश्व में प्रचारित करते हैं। अपने धर्म का प्रचार करने के क्रम में कई बार वे अपने मत को अपने धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास भी करने लग जाते हैं।
इस अवधारणा के विपरीत विश्व भर में सनातन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसके मूल में सर्वधर्म समभाव है। सनातन धर्म शाश्वत है जिसका कोई भी संस्थापक नहीं है। वस्तुतः जिसकी स्थापना की जाती है वो एक पंथ है , उसे एक जीवन शैली कहना अधिक प्रासंगिक होगा।
वेद उपनिषदों में ऐसे अनेकों श्लोक वर्णित हैं जिनमें सनातन धर्म की मूल विचारधारा की विस्तृत व्याख्या मिलती है। धर्म के मूल में समभाव होता है न कि स्वयं की श्रेष्ठता।
वैदिक ग्रंथों में उल्लेखित कुछ श्लोक जो सनातन धर्म में निहित सर्वधर्म समभाव को विस्तृत रूप से परिभाषित करती है -
1- कई पंथों को मानने वाले अन्य धर्म को मानने वालों के लिए बैर भाव रखते हैं वहीं सनातन धर्म पूरी धरती को ही अपना परिवार समझने की बात करता है।
"अयं बन्धु-रयं नेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥"
(महोपनिषद् 4 / 71)
भावार्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो सम्पूर्ण धरती ही परिवार है।
2- कई दूसरे धर्म अपने धार्मिक कार्यों के अंत में केवल अपने ईस्वर की प्रसंशा करते है जबकि सनातन धर्म में पूरे ब्रह्माण्ड की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है
सनातन धर्म में किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्य, संस्कार, यज्ञ आदि के आरंभ और अंत में शांति पाठ करने का प्रावधान है जिसमें मंत्रोच्चार के द्वारा विश्व शांति की प्रार्थना की जाती है।
"ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: ।
सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥"
(यजुर्वेद 36 / 17)
भावार्थ - हे परमात्मा , शांति कीजिए, वायु में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, हे परमपिता परमेश्वर शांति हो, शांति हो, शांति हो।
3- कई धर्मो में दूसरे धर्म के लोगो को तुक्ष समझने की बात की जाती है क्यूंकि दूसरे लोग जो उनके ईस्वर को नहीं मानते वे तुच्छ है, इसके विपरीत सनातन धर्म में परमात्मा की दृष्टि में सभी मनुष्य एक समान है, न कोई बड़ा न कोई छोटा, वस्तुतः सर्वधर्म समभाव।
"अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।"
-(ऋग्वेद 5/60/5)
भावार्थ - ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा। तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो।
4 - कई धर्म में दूसरे धर्म के लोगों को छल बल के द्वारा अपने धर्म में शामिल कराने का चलन है। सनातन धर्म सभी को मनुष्य बनने की बात कहता है।
मनुर्भव (ऋग्वेद 10/53/6)
भावार्थ - ईश्वर कहता है, "मनुष्य बनों"।
5 - कई धर्मों के ग्रन्थ स्त्री पुरुष के मध्य भेद की बात करते हैं। कई जगह स्त्री को पुरषो के अधीन मानने की बात भी कही जाती है। सनातन धर्म में स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं है और सबको एक समान बताया गया है।
“यथैवात्मा तथा प्रत्रः पत्रेण दुहिता समा"
(मनुस्मृति 9/130)
भावार्थ - पुत्र पुत्री के सामान होती है क्यूंकि वह भी पुत्र के तरह आत्मारूप है।
" स्ठुपायां दुहितवापि पुत्रे चात्मनि वा पुनः "
(महाभारत - विराटपर्व 72 : 6 )
भावार्थ - पुत्रवधू , पुत्री में तथा पुत्र में आत्मभेद नहीं है।
6- कई धर्मो में पर्यावरण रक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दीखता है जबकि सनातन धर्म में सृष्टि की हर एक जीव जगत को संरक्षित करने की बात कही गई है। पर्यावरण , वनस्पति समेत समस्त जगत को किसी न किसी रूप में संरक्षित करने का प्रावधान है।
"वनस्पति वन आस्थापयध्वम्"
(ऋग्वेद-10/101/1)
भावार्थ - वन में वनस्पतियाँ उगाओ।
7- सनातन धर्म में मनुष्य के साथ ही सम्पूर्ण जीव जगत को संरक्षित करने की बात पर विशेष बल दिया जाता है। सनातन धर्म किसी रूप में किसी पशु हत्या को प्रोत्साहित नहीं करता है।
"व्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्।
एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दन्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च ॥"
(अथर्ववेद 6/140/2)
भावार्थ - चावल , जौ, तिल खाओ ये अनाज विशेष रूप से आपके लिए हैं उन लोगों को न मारें जो पिता और मां होने में सक्षम हैं।
"यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत:"
(यजुर्वेद 40/7)
भावार्थ - जो सभी आत्माओ में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं।
8 - सनातन धर्म वास्तविक अर्थों में अहिंसा के सिद्धान्त पर विशेष बल देता है
" अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ।। "
-(महाभारत : अनुशासन पर्व - 21/19)
भावार्थ - अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है, क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृत्ति होती है।
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