ब्रह्मांड की उत्पत्ति

Author : Acharya Pranesh   Updated: February 10, 2020   3 Minutes Read   31,440

ब्रह्माँड की उत्पत्ति व उसकी रचना को समझने के लिए आजकल अनेक विशालकाय और साधन सम्पन्न वेधशालाएं अध्ययन और प्रयोगरत हैं। ‘क्वासार’ प्रकाश तरंगों ( जिसके बारे में अभी ज्यादा जानकारी नही है ) से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में अनेक तत्व गैस की स्थिति में बहती हुई नीहारिकाएं (नोबुला) किसी ऐसे प्रकाश स्रोत से आ रही हैं जो सम्पूर्ण सृष्टि का केन्द्र बिन्दु है। वस्तुतः उसके वर्तमान स्वरूप के बारे में कोई पुष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। आधुनिक वैज्ञानिक शोध कर रहे है और सम्बंधित जानकारी उपलब्ध करने का प्रयास कर रहे है। 

आधुनिक वैज्ञानिक अभी इस क्षेत्र में अधिकाँश परिकल्पनाों पर ही काम कर रहे हैं। कोई तो कहता है कि जिन प्रारंभिक कणों से ब्रह्माँड की रचना हुई वह इतने गर्म थे कि ब्रह्माँड का जब विस्तार प्रारंभ हुआ तब उसके कुल दस मिनट बाद तापमान एक अरब डिग्री सेन्टीग्रेड था। उसमें स्थूल कण न होकर केवल न्यूट्रॉन थे। 

रूस के एक बड़े विख्यात वैज्ञानिक डॉ. चाकोब जेल्डोविच का विचार इससे भिन्न है। उनका कहना है कि सृष्टि के मूल विकास की प्रक्रिया हाइड्रोजन से प्रारंभ होती है। उसमें भाग लेने वाले अणुओं में अकेले न्यूट्रॉन ही नहीं थे वरन् प्रोटोन, इलेक्ट्रान भी थे। अत्यधिक शीत के कारण हाइड्रोजन एक जमे हुए पदार्थ के रूप में था। वही टूट-टूट कर बूँद और परमाणुओं के रूप में फैलता चला गया और तापमान तथा वायु दाब (प्रेशर) आदि की विभिन्न परिस्थितियों में आवर्ती सारिणी के अनेक पदार्थों में बदलता चला गया। आज जो अनेक तारागण, पृथ्वी आदि दिखाई देते हैं वह सब इस जमे हुए हाइड्रोजन के ही परिवर्तित और परिवर्द्धित रूप हैं।

ब्रह्माँड-विकास की इस वैज्ञानिक जानकारी को जब सृष्टि-उत्पत्ति विषयक ऋषि प्रणीत वेद से तुलना करते हैं तो पता चलता है कि हमारा सनातन ज्ञान विज्ञान कितना अत्याधुनिक था तथा सनातन दर्शन कितना विज्ञान सम्मत रहा है। विज्ञान की दिनों दिन बढ़ती प्रगति निरन्तर भारतीय सिद्धाँतों की ही पुष्टि करती चली जा रही हैं। जो लोग यह सोचते हैं कि भारतीयों ने केवल भावनाओं की ही महत्ता प्रतिपादित की, उन्हें अब यह भी जानना चाहिए कि हमारा प्रत्येक प्रतिपादन आधुनिक भौतिक विज्ञान की ही आधारशिला रहा है।

ऋग्वेद के (10।90) पुरुष सूक्त और दशवें मण्डल में प्रयुक्त कई सूक्त, मंत्र या ऋचाओं में सृष्टि विकास विषयक जो भी निर्देश है वह न केवल उपरोक्त वैज्ञानिक अनुसंधानों से मेल खाता है वरन् उससे भी परिमार्जित शुद्ध ज्ञान है। साथ ही उसमें आत्मा के उत्थान और विकास का विज्ञान भी संयुक्त होने के कारण वह समस्त मानव जाती के उथान के लिए लाभदायक भी है।

भौतिक शास्त्रियों ने हाइड्रोजन सरीखे किसी पदार्थ को ब्रह्माँड विकास का मूल माना है। इस संबंध में आधुनिक वैज्ञानिकों में मतभेद है जबकि हमारे सभी प्राचीन ग्रंथकार इस संबंध में एकमत रहे हैं कि यह संपूर्ण जगत एक ही पुरुष या परमात्मा की इच्छा या आदि तत्व में क्षोभ के कारण उत्पन्न हुआ। 

पुरुष शब्द का अर्थ मनुष्य से जान पड़ता है। पर वस्तुतः पुरुष का अर्थ ‘सम्पूर्ण जीव जगत में व्याप्त चेतना’ से है, जो अव्यक्त, अक्षर, अविनाशी और अनादि है। उसे ही परब्रह्म भी कहा गया है। 

श्वेताश्वतर उपनिषद् के ऋषि से एक जिज्ञासु प्रश्न करते है-

कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् 1।2

महात्मन्! काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पंचभूत, प्रकृति तथा पुरुष में प्रधान कौन है ?

इस पर उपनिषद्कार उत्तर देता है- ‘स तं परं पुरुषं उपैति दिव्यम्’- वह दिव्य पुरुष ही प्रधान है।

आइन्स्टीन ने सृष्टि के मुख्य मानक (फैक्ट्स) चार ही माने थे। पर सच बात यह है कि- ‘मनुष्य के स्वभाव और विराट चेतना की कार्य-प्रणाली प्रकृति के स्वभाव और क्रिया की जानकारी’ भी उसमें पाँचवीं संयुक्त होनी चाहिए। संसार जितना दृश्य है उतना ही मानसिक और आत्मिक भी। आत्मा और मन के विज्ञान को छोड़ा नहीं जा सकता।

चेतना जो पुरुष रूप में थी वह ‘हरिण्यगर्भ’ तथा ‘प्रजापति’ रूप में थी।
हिरण्यगर्भ का अर्थ ‘प्रकाश व अग्नि स्वरूप’ और प्रजापति का अर्थ ‘उसमें भरी हुई चेतना, इच्छा व विचार शक्ति’ से ही है।
फिर जब उस पुरुष में क्षोभ उत्पन्न हुआ, तो उसने अपने तेजस कणों से शीत कणों की उत्पत्ति की (पुरुष भी तत्व है) उन्हें आपः कण कहा गया है । इन आपः, जिनका अर्थ सलिल होता है, को हाइड्रोजन ही मानना चाहिए। क्योंकि आपः का अर्थ स्थूल जल से नहीं, सूक्ष्म जल से है और हाइड्रोजन भी जल बनाने वाला ही तत्व है।

यहाँ से भारतीय विज्ञान व पाश्चात्य विज्ञान में तुलना प्रारंभ हो जाती है- अपाँ सघातो विलयनंच तेजः संयोगात्’ वैशेषिक दर्शन 5।2।8। इन आपः कणों में संपीड़न (प्रेशर) उत्पन्न होने से क्रमशः एक परमाणु एक अणु (हाइड्रोजन) द्वयणुक अर्थात् दो प्रोटोन या इलेक्ट्रान वाला (होलियम) त्रसरेणु अर्थात् तीन इलेक्ट्रान वाला (लीथियम) आदि अनेक गैसों, धातुओं, खनिजों आदि प्रकृति की उत्पत्ति होती चली गई।

यह क्रम आवर्ती सारिणी के अनुसार ही है। पर हमारे यहाँ आपः (जल), अग्नि और वायु की स्थिति को मुख्य माना है। धातुओं और खनिजों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य रूप से रहती है। इसलिये यह सब तत्व नहीं माने गये, जो ठीक भी है। 

तत्व वह है जो रासायनिक क्रिया में भाग लेते हैं। रासायनिक क्रिया में मूल रूप से अग्नि, जल, वायु (एअर प्रेशर और टेम्परेचर) ही भाग लेते हैं, इसलिये उन्हीं को तत्व कहा जाना ठीक है। यदि अग्नि, आपः और दबाव आदि न हो तो रासायनिक क्रिया कभी हो ही नहीं सकती।

इस तरह सृष्टि-विकास की मूल प्रक्रिया अग्नि और जल-कणों से ही गैस रूप में होती है। नीहारिका एक प्रकार की गैस ही है जो वायु के संसर्ग में आते ही दूसरे-दूसरे भौतिक तत्वों की उत्पत्ति और अनेक ब्रह्माँडों का सृजन करती है। शतपथ ब्राह्मण के छठवें काँड में लिखा है-

सोऽयं पुरुषः प्रजापतिरकामयत्---ब्रह्मैव प्रथममसृजत त्रयीमेव विद्याम्---॥8॥ सोऽपोऽसृजत। वाच एव लोकात् वागेवास्य सासृज्यत्। सेदं सर्वम् आप्नोद यदिदं किं च यदाप्नोत् तस्मादायः यदवृणोत् तस्माद्वा॥9॥

अर्थात् प्रारंभ अग्नि रूप-पुरुष-प्रजापति ने अपने आप को एक से बहुत होने की इच्छा की। तब उससे आपः उत्पन्न हुए, उसने ही सर्वप्रथम शब्द उत्पन्न कर इन आपः कणों को उससे आच्छादित किया।

यत्र वै यज्ञस्य शिरोऽच्छिद्यत तस्य रसो द्रत्वापः प्रविवेश तेनैवैतद् रसेन आपः स्यन्दन्ते।

अर्थात् प्रजापति का शिर छिन्न हुआ, उसका रस बहकर आपों में प्रविष्ट हुआ। वह रस ही आता है-जो आपः बहते हैं।

यह आपः ही गैस अवस्था में जल परमाणुओं वाली नीहारिकाएं हैं, जो ब्रह्म से बहती हुई अनेक ब्रह्माँडों की रचना करती हैं। इन तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि जहाँ विज्ञान वाला भाग वेद और भौतिक विज्ञान दोनों में मिलता-जुलता है, वहाँ पुरुष का अर्थात् ईश्वर का सिद्धाँत गलत नहीं होना चाहिए।

भारतीय तत्व-दर्शन की पुष्टि में आधुनिक विज्ञान (साइन्स) का सिद्धाँत बड़ा सहायक सिद्ध हुआ है कि आपः में शब्द को आच्छादित किया। 

अन्तरिक्षे दुन्दुभयो वितना बदन्ति-अधिकुम्भाः पर्यायन्ति। (जैमिनि 2।404)।

अर्थात् अन्तरिक्ष में दुन्दुभि के समान विस्तृत और सर्वव्यापी परम वाक्-ध्वनि होती रहती है। सन 1942 में मक्क्रिय ने जब सूर्य की खोज करते-करते एक विशेष ध्वनि को सुना तो वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने अपनी पुस्तक ‘फिजिक्स आफ दि सन एण्ड स्टार्स’ के 83 पेज पर लिखा है कि- ‘श्री जे.एस. दे द्वारा वर्णित सूर्य से आने वाली ध्वनि (सोलर न्वाइज) गलत नहीं है वरन् सूर्य की ध्वनि की तरह ही और भी तारा-मण्डलों (ग्लैक्सीज) से ध्वनि तरंगें आ रही हैं। वह सौर-घोष सोलर न्वाइज के समान ही हैं। उनका अनुसंधान किया जाना बहुत आवश्यक है।’

इस कथन से यह सिद्ध होता है कि आकाश कहीं भी शून्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो ध्वनियाँ नहीं आतीं। शब्द-कम्पन किसी-न-किसी माध्यम से ही चलते हैं। वैज्ञानिकों की यह खोजें जब उस आदि केन्द्र तक पहुँचेंगी, जहाँ से ब्रह्म प्रकीर्ण होता है, तब न केवल समय व ब्रह्माँड सीमित हो जायेंगे वरन् समस्त वाक् भी ‘ॐ' जैसी किसी विराट ध्वनि में समाये दिखाई देंगे।

वहाँ सापेक्ष कुछ भी नहीं होता, सब कुछ अमर, आनन्दमय और परिपूर्ण होता है। उसे प्राप्त करने का भाव विज्ञान प्रकट कर सकें - संसार का दिग्भ्रम तभी दूर हो सकता है।


Disclaimer! Views expressed here are of the Author's own view. Gayajidham doesn't take responsibility of the views expressed.

We continue to improve, Share your views what you think and what you like to read. Let us know which will help us to improve. Send us an email at support@gayajidham.com


Get the best of Gayajidham Newsletter delivered to your inbox

Send me the Gayajidham newsletter. I agree to receive the newsletter from Gayajidham, and understand that I can easily unsubscribe at any time.

x
We use cookies to enhance your experience. By continuing to visit you agree to use of cookies. I agree with Cookies