क्या बुद्ध वेद के विरोधी थे

Author : Gayaji Dham   Updated: July 04, 2020   2 Minutes Read   70,530

Author - Hari Maurya

कई लोग विशेषतः भारत के नवबौद्ध ऐसा कहते नहीं थकते की गौतम बुद्ध सनातन धर्म और सनातन धर्म के पौराणिक ग्रंथो के विरोधी थे, पर वस्तुतः ये पूरी तरह से गलत है , दुष्प्रचार है। सत्य तो ये है गौतम बुद्ध वेद और वेदो में निहित ज्ञान विज्ञान के बड़े प्रशंशक थे और उनकी दृष्टि में वेद ज्ञान के भंडार है।

इस सत्य की पुष्टि अनेक बौद्ध साहित्य और बौद्ध ग्रंथो से होती है।

आइये आज हम इसी विषय पर चर्चा करते है और जानते है की विभिन्न बौद्ध ग्रंथो में भगवन बुद्ध ने वेद के बारे में क्या विचार प्रकट किये थे।

इस तथ्य को समझने के लिए हमने विभिन्न बौद्ध साहित्य और बौद्ध धार्मिक ग्रंथो का अध्ययन किया है और ये लेख उसी शोध के आधार पर लिखा है। 

1) सुत्त निपात बौद्ध दर्शन का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसके सभिय सुत्त में महात्मा बुद्ध ने एक वेदज्ञ ( वेद को जाननेवाला ) के लक्षण को बताया है जो इस प्रकार है

वेदानि विचेग्य केवलानि समणानं यानि पर अत्थि ब्राह्मणानं।

सब्बा वेदनासु वीतरागो सब्बं वेदमनिच्च वेदगू सो।।

(सुत्त निपात 529)

इस सूक्त में बुद्ध बताते है जिसने सब वेदो और कैवल्य वा मोक्ष-विधायक उपनिषदो का अध्ययन कर लिया है और जो सब वेदनाओ से वीतराग होकर सबको अनित्य जानता है वही वेदज्ञ है ।

2) एक प्रश्न आता है कि किन गुणोँ को प्राप्त करके मनुष्य श्रोत्रिय होता है?

बुद्ध इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देते है

"सुत्वा सब्ब धम्मं अभिञ्ञाय लोके सावज्जानवज्जं यदत्थि किँचि।

अभिभुं अकथं कथिँ विमुत्त अनिघंसब्बधिम् आहु 'सोत्तियोति"।।

बुद्ध बताते है की " जितने भी निन्दित और अनिन्दित धर्म है उन सबको सुनकर और जानकर जो मनुष्य उनपर विजय प्राप्त करके निश्शंक, विमुक्त, और सर्वथा निर्दुख हो जाता है, उसे श्रोत्रिय कहते है "।

यहाँ ध्यान देने की बात है की संस्कृत भाषा में श्रोत्रिय शब्द का प्रयोग ' श्रोत्रियछश्न् दोऽधीते ' वेद पढ़नेवाले के लिए किया जाता है जो अष्टाध्यायी के सूत्र के अनुसार सही है।

3) मनुस्मृति में महर्षि मनु गायत्री मन्त्र को सावित्री मन्त्र के नाम से भी पुकारते हैं जिसका कारण ये है कि परमेश्वर को 'सविता' के नाम से स्मरण किया गया है।

"ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् , भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् " । ।

गायत्री मन्त्र का भावार्थ - उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

महात्मा बुद्ध गायत्री मंत्र के बड़े प्रशंशक थे जो सुत्तनिपात महावग्ग सेलसुत्त के इस श्लोक से स्पष्ट होता है।

"अग्गिहुत्तमुखा यज्ञाः सावित्री छन्दसो मुखम्"।

छन्दो मे सावित्री छन्द (गायत्री मंत्र) प्रधान है तथा इससे अग्रिहोत्र ( विषयक श्रद्धा ) का भी आभास मिलता है।

4) बौद्ध धर्म ग्रन्थ सुत्तनिपात के एक श्लोक 322 मे महात्मा बुद्ध कहते है -

एवं पि यो वेदगू भावितत्तो, बहुस्सुतो होति अवेध धम्मो।

सोखो परे निज्झपये पजानं सोतावधानूपनिसूपपत्रे।।

इस श्लोक में बुद्ध कहते है " जो वेद जाननेवाला है, जिसने अपने को सधा रखा है, जो बहुश्रुत है और धर्म का निश्चय पूर्वक जाननेवाला है वह निश्चय से स्वयं ज्ञान बनकर अन्योँ को जो श्रोता सीखने के अधिकारी है ज्ञान दे सकता है। "

5) बौद्ध ग्रन्थ सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त में एक रोचक कथा आती है जिसमे सुन्दरिक भारद्वाज ने जब अपना यज्ञ समाप्त कर लिया तो वह यज्ञ शेष किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को देना चाहते थे , तभी उनकी दृष्टि संन्यासी बुद्ध पर पड़ी। सुन्दरिक भारद्वाज ने जब बुद्ध से उनकी जाति पूछी तब बुद्ध ने खुद को ब्राह्मण कहा और उसे सत्य का उपदेश देते हुए कहा -

"यदन्तगु वेदगु यञ्ञ काले। यस्साहुतिँल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि।।"

श्लोक का हिंदी भावार्थ - वेद को जाननेवाला जिसकी आहुति को प्राप्त करे उसका यज्ञ सफल होता है ऐसा मै कहता हूं।

6) बौद्ध धर्म ग्रन्थ सुत्तनिपात के श्लोक 1059 में महात्मा बुद्ध ने जो कहा वो इस श्लोक के रूप में उल्लेखित है -

यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजञ्ञा अकिँचनं कामभवे असत्तम्।

अद्धाहि सो ओघमिमम् अतारि तिण्णो च पारम् अखिलो अडंखो।।

श्लोक का हिंदी भावार्थ - जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कोई धन नही, जो भौतिक कामनाओ मे आसक्त नही है , वह आकांक्षा से रहित होनेवाला इस संसार सागर के पार पहुंच जाता है।

7) बौद्ध धर्म ग्रन्थ सुत्तनिपात के एक अन्य श्लोक में बुद्ध कहते है

"विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम्|

न उच्चावचं गच्छति भूरिपञ्ञो|(सुत्तनिपात २९२)

श्लोक का हिंदी भावार्थ - जो विद्वान वेदो से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी भी विचलित नही होता है।

8) बौद्ध धर्म ग्रन्थ सुत्तनिपात के एक अन्य श्लोक में बुद्ध कहते है

विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा।

सो वीतवण्हो अनिघो निरासो,आतारि सो जाति जंराति ब्रमीति।। (सुत्तनिपात१०६०)

श्लोक का हिंदी भावार्थ - वेद को जानने वाला विद्वान इस संसार मे जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके शोक , इच्छा ,तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है।

इन सभी तथ्यों से ये स्पष्ट होता है कि भगवान बुध्द वेदो के विरोधी नही थे बल्कि वेदो को वे ज्ञान विज्ञान का अक्षय स्तोत्र मानते थे। उन्होंने अपने किसी भी उपदेश में वेद में निहित ज्ञान विज्ञान पर किसी प्रकार का संदेह प्रकट नहीं किया बल्कि सदैव उन्होंने वेदो के प्रति आदर का ही भाव प्रकट किया है।

बुद्ध के उपदेशो में जहा कही भी निन्दासूचक शब्द आये है वे उन ब्राह्मणोँ के लिए आये है जिन्होंने वेदो में निहित ज्ञान विज्ञान के अनुरूप आचरण नहीं किया और पथभ्रस्ट हो गए।

Author - Hari Maurya


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