कंबोज उत्तरापथ के गांधार के निकट स्थित प्राचीन भारतीय जनपद था जिसकी ठीक-ठाक स्थिति दक्षिण पश्चिम के पुँछ के इलाके के अंतर्गत मानी जा सकती है। प्राचीन संस्कृत एवं पाली साहित्य में कंबोज और गांधार का नाम प्राय: साथ-साथ आता है। जिस प्रकार गांधार के उत्कृष्ट ऊन का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है (१,१२६) उसी प्रकार कंबोज के कंबलों का उल्लेख यास्क के निरुक्त में हुआ है (२, २)। वास्तव में यास्क ने 'कंबोज' शब्द की व्युत्पत्ति ही 'सुंदर कंबलों का उपभोग करनेवाले' या विकल्प में सुंदर भोजन करनेवाले लोग-इस प्रकार की है। गांधार और कंबोज इन दोनों जनपदों के अभिन्न संबंध की परंपरा से ही इनका सान्निध्य सिद्ध हुआ है। गांधार अफगानिस्तान (कंदहार) का संवर्ती प्रदेश था और इसी के पड़ोस में पूर्व की ओर कंबोज की स्थिति थी।
वाल्मीकि रामायण में कंबोज का वातहीक और वनायु जनपदों के साथ वर्णन है और इन देशों में उत्पन्न श्रेष्ठ काले घोड़ों से अयोध्या नगरी को भरी पूरी बताया गया है (बाल. ६, २२)। महाभारत में अर्जुन की दिग्विजय के प्रसंग में परमकांबोज का लोह और ऋषिक जनपदों के साथ उल्लेख है (सभा. २७, २५)। (ऋषिक यूची का रूपांतरण जान पड़ता है। यूची जाति का निवासस्थन दक्षिण-पश्चिम चीन या चीनी तुर्किस्तान के अंतर्गत था। प्रसिद्ध बौद्ध सम्राट् कनिष्क का रक्तसंबंध इसी जाति के कुशान नामक कबीले से था।) द्रोणपर्व में सात्यकि द्वारा कांबोजों, यवनों, शकों, किरातों और बर्बरों आदि की दुर्मद सेना को हराने और उनके मुंडित मस्तकों और लंबी दाढ़ियों का चित्रमय उल्लेख (१९९, ४५-४८)-हे राजन्, सात्यकि ने आपकी (धृतराष्ट्र की) सेना का संहार करते हुए हजारों कांबोजों, शकों, शबरों, किरातों और बर्बरों के शवों से रणभूमि को पाठकर वहाँ मांस और रुधिर की नदी बहा दी थी। उन दस्युओं के, शिरस्त्राणों से युक्त मुँडित और लंबी दाढ़ियोंवाले सिरों से रणभूमि पंखहीन पक्षियों से भरी हुई सी दिखाई दे रही थी। महाभारत के युद्ध में काबोजों ने कौरवों का साथ दिया था। यह द्रष्टव्य है कि कांबोजादि को आकृति संबंधी जिन विशेषताओं का वर्णनमहाभारत के इस प्रसंग में हैं वे आज भी इस प्रदेश के निवासियों में विद्यमान हैं। महाभारत में कांबोजों के राजपुर नामक नगर का भी उल्लेख है जिसे कर्ण ने जीता था (द्रोण. ४, ५)।
कनिंघम ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'एंशेंट जियोग्रफी ऑव इंडिया' (पृ. १४२) में राजपुर का अभिज्ञान दक्षिण-पश्चिम कश्मीर के राजौरी नामक नगर (जिला पुँछ, कश्मीर) के साथ किया है। इस प्रकारकंबोज देश की अवस्थिति का ज्ञान हमें प्राय: निश्चित रूप से हो जाता है। राइस डेविड्स ने इस प्रदेश की पूर्वबौद्धकालीन द्वारका नामक नगरी का उल्लेख किया है। लूडर्स के अभिलेखों (संख्या १७६, ४१२) में कंबोज जनपद के एक दूसरे स्थान नंदिनगर का भी उल्लेख है जिसकी स्थिति का ठीक पता नहीं।
प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने, जो स्वयं कंबोज के सहवर्ती प्रदेश के निवासी थे 'कंबोजाल्लुक' सूत्र से (अष्टाध्यायी ४, १, १७३) इस जनपद के बारे में अपनी जानकारी प्रकट की है। पतंजलि ने भी महाभाष्य में कंबोज का उल्लेख किया है।
सिकंदर के आक्रमण के समय (३२७ ई.पू.) कंबोज प्रदेश की सीमा के अंतर्गत उरशा (जिला हाजारा) और अभिसार (जिला पुँछ) नामक छोटे-छोटे राज्य बसे हुए थे।
पालि ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय में भारत के १६ महाजनपदों में कंबोज की भी गणना की गई है (१,२१३; ४,२५२-२५६-२६१)। अशोक के अभिलेखों में कांबोजों का उल्लेख, सीमावर्ती यवनों, नाभकों, नाभपंक्तियों, भोजपितिनकों और गंधारों आदि के साथ किया गया है (शिलालेख १३)। इस धर्मलिपि से ज्ञात होता है कि यद्यपि कंबोज जनपद अशोक का सीमावर्ती पांत था तथापि वहाँ भी उसके शासन कापूर्ण रूप से प्रचलन था। विद्वानों का मत है कि शाहबाजगढ़ी (जिला पेशावर) और मानसेहरा (जिला हजारा) में प्राप्त अभिलेखों से, अशोक के समय में (मश्य तृतीय शताब्दी ई.पू.), क्रमश: गांधार और कंबोज जनपदों की स्थिति का ज्ञान होता है।
महाभारत के वर्णन में कंबोज देश के अनार्य रीति रिवाजों का आभास मिलता है। भीष्म. ९,६५ में कांबोजों को म्लेच्छजातीय बताया गया है। मनु ने भी कांबोजों को दस्यु नाम से अभिहित किया है तथा उन्हें म्लेच्छ भाषा बोलनेवाला बताया है (मनुस्मृति १०, ४४-४५)। मनु की ही भाँति निरुक्तकार यास्क ने भी कांबोजों की बोली को आर्य भाषा से भिन्न कहा है और इस तथ्य के प्रमाण में उन्होंने उदाहरण भी दिया है (११-२)। इसी प्रकार भूरिदत्त जातक में भी कांबोजों के अनार्याचरण तथा अनार्य धर्म का उल्लेख है।
चीनी यात्री युवानच्वांग ने (मध्य ७वीं सदी ई.) भी राजपुर के संवर्ती प्रदेश के निवासियों को भारत के आर्यजनों की सांस्कृतिक परंपरा के बहिर्गत माना है और उन्हें उत्तर-पश्चिम की सीमावर्ती असभ्य जातियों के अंतर्गत बताया है। युवानच्वांग ने राजपुर को चीनी भाषा में 'होलोशिपुलो' लिखा है। किंतु इसके साथ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कंबोज में बहुत प्राचीन काल से ही आर्यों की बस्तियाँ बिद्यमान थीं। इसका स्पष्ट निर्देश वंशब्राह्मण के उस उल्लेख से होता है जिसमें कांबोज औपमन्यव नामक आचार्य का प्रसंग है। यह आचार्य उपमन्यु गोत्र में उत्पन्न, मद्रगार के शष्य और कंबोज देश के निवासी थे। कीथ का अनुमान है कि इस प्रसंग में वर्णित औपमन्यव कांबोज और उनके गुरु मद्रगार के नामों से उत्तरमद्र और कंबोज देशों के सन्निकट संबंध का आभास मिलता है। पालि ग्रंथ मज्झिमनिकाय से भी कंबोज में आर्य संस्कृति की विद्यमानता के बारे में सूचना मिलती है।
महाभारत में कंबोज देश के कमठ और सुदक्षिण नामक राजाओं के नाम मिलते हैं-(सभा. ४, २२-उद्योग. १६६, १)। किंतु कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि चतुर्थ शताब्दी ई.पू. में कांबोज में संघ या गणराज्य की स्थापना भी की गई थी। अर्थशास्त्र (पृ. ३१८) में कांबोजों को वार्ताशस्त्रोपजीवी संघ अर्थात् कृषि और शस्त्रों से जीविका अर्जन करनेवाले संघ की संज्ञा दी गई है। महा. ७, ८९, ३८ में भी 'कबोजानां च ये गणा:', ऐसा वर्णन मिलता है।
संस्कृत के काव्य ग्रंथों में भी कंबोज के विषय में अनेक उल्लेख मिलते हैं; उदाहरणार्थ, कालिदास ने रघुवंश में रघु की दिग्विजययात्रा के प्रसंग में कांबोजों पर उनकी विजय का सुंदर वर्णन इस प्रकार किया है-(रघु. ४, ६९)-'रघु के प्रभाव को सहने में असमर्थ कंबोज-निवासियों को अपने देश के अखरोट के वृक्षों, जिनसे रघु की सेना के मदमत्त हाथियों की शृंखलाएँ बाँधी गई थीं, की भाँति ही विनत होना पड़ा।' यह द्रष्टव्य है कि कालिदास के समय में भी आज ही की तरह भारत के इस प्रदेश के अखरोट प्रसिद्ध थे।
इतिहासकार कल्हण के अनुसार कश्मीर नरेश ललितादित्य ने उत्तरापथ के अन्य कई देशों के साथ कंबोज को भी जीता था। उसके वर्णन में भी कंबोज की परंपरा से प्रसिद्ध घोड़ों का उल्लेख (४, १६३)। इस वर्णन से यह भी प्रमाणित होता है कि भारतीय इतिहास के प्राय: मध्यकाल (११वीं-१२वीं सदी ई.) तक कंबोज देश के नाम का प्रचलन था तथा इसकी सीमाएँ भी प्राय: पूर्ववत् ही थीं, किंतु यह जान पड़ता है कि तत्पश्चात् धीरे-धीरे इस जनपद का विलय कश्मीर राज्य में हो जाने से इसकी पृथक सत्ता का अंत हो गया और इसके साथ ही इसका नाम भी विस्मृति के गर्त में जा पड़ा। फिर भी अभी तक कंबोज के नाम की स्मृति काफिरिस्तान के निकटवर्ती प्रदेश के कुछ कबीलों के नामों, जैसे कंबोजी, कमोज और कामोजे आदि में सुरक्षित है।
नेपाली परंपरा में कंबोज देश के नाम से तिब्बत का अभिधान किया जाता रहा है (देखिए, फ़ूशे : इकोनोग्राफ़ीक बुद्धीक, पृ. १३४), किंतु उपर्युक्त तथ्यों से यह भली भाँति प्रमाणित होता है कि इस जनपद की स्थिति प्राचीन भारत की उत्तरी पश्चिमी सीमा के निकट ही रही होगी। यह तथ्य उनकी बोली से भी, जो ईरानी भाषा की ही एक शाखा थी,
प्राचीन समय में भारतवर्ष के प्रमुख जनपदों में गिना जाता था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में कंबोज देश या यहाँ के निवासी कांबोजों के विषय में अनेक उल्लेख हैं, जिनसे जान पड़ता है कि कंबोज देश का विस्तार स्थूल रूप से कश्मीर से हिन्दूकुश तक था। वंश ब्राह्मण में कंबोज औपमन्यव नामक आचार्य का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में कंबोज, वाल्हीक और वनायु देशों के श्रेष्ठ घोड़ों का अयोध्या में होना वर्णित है-
'कांबोज विषये जातैर्बाल्हीकैश्च हयोत्तमै:
वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णाहरिहयोत्तमै: (वाल्मीकि रामायण बाल काण्ड 6,22)
महाभारत के अनुसार अर्जुन ने अपनी उत्तर दिशा की दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में दर्दरों या दर्दिस्तान के निवासियों के साथ ही कांबोजों को भी परास्त किया था-
'गृहीत्वा तु बलं सारं फाल्गुन: पांडुनन्दन:
दरदान् सह काम्बोजैरजयत् पाकशासनि:' (सभा पर्व महाभारत 27,23। शांतिपर्व महाभारत 207,43)
अंगुत्तरनिकाय (1,213; 4,252, 256-261) और अशोक के पांचवें शिलालेख में कंबोज का गंधार के साथ उल्लेख है।
महाभारत (शांतिपर्व महाभारत 207,43) और राजतरंगिणी (4,163-165) में कंबोज की स्थिति उत्तरापथ में बताई गई है। महाभारत में कहा गया है कि कर्ण ने राजपुर पहुंचकर कांबोजों को जीता, जिससे राजपुर कंबोज का एक नगर सिद्ध होता है-
'कर्ण राजपुरं गत्वा काम्बोजानिर्जितास्त्वया'। (द्रोण पर्व महाभारत 4,5)
ईशानपुर प्राचीन कम्बोडिया का एक नगर था। कर्निघम के अनुसार राजपुर कश्मीर में स्थित राजौरी है (एशेंट ज्योग्रेफी आफ इंडिया, पृ. 148)
कालिदास ने रघुवंश में रघु के द्वारा कांबोजों की पराजय का उल्लेख किया है—
'काम्बोजा: समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वरा:, गजालान् परिक्लिष्टैरक्षोटै: सार्धमानता:' ( रघुवंश 4,69।)
इस उद्धरण में कालिदास ने कंबोज देश में अखरोट वृक्षों का जो वर्णन किया है वह बहुत समीचीन है। इससे भी इस देश की स्थिति कश्मीर में सिद्ध होती हैं। युवानच्वांग ने भी राजपुर का उल्लेख किया है (युवानच्वांग, भाग 1, पृ. 284)।
वैदिक काल में कंबोज आर्य-संस्कृति का केंद्र था जैसा कि वंश-ब्राह्मण के उल्लेख से सूचित होता है, किंतु कालांतर में जब आर्यसभ्यता पूर्व की ओर बढ़ती गई तो कंबोज आर्य-संस्कृति से बाहर समझा जाने लगा। यास्क और भूरिदत्तजातक (काँवेल 6,110) में कंबोजों के प्रति अवमान्यता के विचार प्रकट किए गए हैं। युवानच्वांग ने भी कांबोजों को असंस्कृत तथा हिंसात्मक प्रवृत्तियों वाला बताया है। कंबोज के राजपुर, नंदिनगर (लूडर्स, इसंक्रिप्शंस, 176, 472) और राइसडेवीज़ के अनुसार द्वारका नामक नगरों का उल्लेख साहित्य में मिलता है।
महाभारत में कंबोज के कई राजाओं का वर्णन है जिनमें सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कंबोज के 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' (खेती और शस्त्रों से जीविका चलाने वाले) संघ का उल्लेख है । मौर्यकाल में चंद्रगुप्त के साम्राज्य में यह गणराज्य विलीन हो गया होगा।
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